042

01 दोहा

सहज सकल रघुबर बचन कुमति कुटिल करि जान।
चलइ जोङ्क जल बक्रगति जद्यपि सलिलु समान॥42॥

मूल

सहज सकल रघुबर बचन कुमति कुटिल करि जान।
चलइ जोङ्क जल बक्रगति जद्यपि सलिलु समान॥42॥

भावार्थ

रघुकुल में श्रेष्ठ श्री रामचन्द्रजी के स्वभाव से ही सीधे वचनों को दुर्बुद्धि कैकेयी टेढा ही करके जान रही है, जैसे यद्यपि जल समान ही होता है, परन्तु जोङ्क उसमें टेढी चाल से ही चलती है॥42॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

रहसी रानि राम रुख पाई। बोली कपट सनेहु जनाई॥
सपथ तुम्हार भरत कै आना। हेतु न दूसर मैं कछु जाना॥1॥

मूल

रहसी रानि राम रुख पाई। बोली कपट सनेहु जनाई॥
सपथ तुम्हार भरत कै आना। हेतु न दूसर मैं कछु जाना॥1॥

भावार्थ

रानी कैकेयी श्री रामचन्द्रजी का रुख पाकर हर्षित हो गई और कपटपूर्ण स्नेह दिखाकर बोली- तुम्हारी शपथ और भरत की सौगन्ध है, मुझे राजा के दुःख का दूसरा कुछ भी कारण विदित नहीं है॥1॥

तुम्ह अपराध जोगु नहिं ताता। जननी जनक बन्धु सुखदाता॥
राम सत्य सबु जो कछु कहहू। तुम्ह पितु मातु बचन रत अहहू॥2॥

मूल

तुम्ह अपराध जोगु नहिं ताता। जननी जनक बन्धु सुखदाता॥
राम सत्य सबु जो कछु कहहू। तुम्ह पितु मातु बचन रत अहहू॥2॥

भावार्थ

हे तात! तुम अपराध के योग्य नहीं हो (तुमसे माता-पिता का अपराध बन पडे यह सम्भव नहीं)। तुम तो माता-पिता और भाइयों को सुख देने वाले हो। हे राम! तुम जो कुछ कह रहे हो, सब सत्य है। तुम पिता-माता के वचनों (के पालन) में तत्पर हो॥2॥

पितहि बुझाइ कहहु बलि सोई। चौथेम्पन जेहिं अजसु न होई॥
तुम्ह सम सुअन सुकृत जेहिं दीन्हे। उचित न तासु निरादरु कीन्हे॥3॥

मूल

पितहि बुझाइ कहहु बलि सोई। चौथेम्पन जेहिं अजसु न होई॥
तुम्ह सम सुअन सुकृत जेहिं दीन्हे। उचित न तासु निरादरु कीन्हे॥3॥

भावार्थ

मैं तुम्हारी बलिहारी जाती हूँ, तुम पिता को समझाकर वही बात कहो, जिससे चौथेपन (बुढापे) में इनका अपयश न हो। जिस पुण्य ने इनको तुम जैसे पुत्र दिए हैं, उसका निरादर करना उचित नहीं॥3॥

लागहिं कुमुख बचन सुभ कैसे। मगहँ गयादिक तीरथ जैसे॥
रामहि मातु बचन सब भाए। जिमि सुरसरि गत सलिल सुहाए॥4॥

मूल

लागहिं कुमुख बचन सुभ कैसे। मगहँ गयादिक तीरथ जैसे॥
रामहि मातु बचन सब भाए। जिमि सुरसरि गत सलिल सुहाए॥4॥

भावार्थ

कैकेयी के बुरे मुख में ये शुभ वचन कैसे लगते हैं जैसे मगध देश में गया आदिक तीर्थ! श्री रामचन्द्रजी को माता कैकेयी के सब वचन ऐसे अच्छे लगे जैसे गङ्गाजी में जाकर (अच्छे-बुरे सभी प्रकार के) जल शुभ, सुन्दर हो जाते हैं॥4॥