040

01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुत सनेहु इत बचनु उत सङ्कट परेउ नरेसु।
सकहु त आयसु धरहु सिर मेटहु कठिन कलेसु॥40॥

मूल

सुत सनेहु इत बचनु उत सङ्कट परेउ नरेसु।
सकहु त आयसु धरहु सिर मेटहु कठिन कलेसु॥40॥

भावार्थ

इधर तो पुत्र का स्नेह है और उधर वचन (प्रतिज्ञा), राजा इसी धर्मसङ्कट में पड गए हैं। यदि तुम कर सकते हो, तो राजा की आज्ञा शिरोधार्य करो और इनके कठिन क्लेश को मिटाओ॥40॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

निधरक बैठि कहइ कटु बानी। सुनत कठिनता अति अकुलानी॥
जीभ कमान बचन सर नाना। मनहुँ महिप मृदु लच्छ समाना॥1॥

मूल

निधरक बैठि कहइ कटु बानी। सुनत कठिनता अति अकुलानी॥
जीभ कमान बचन सर नाना। मनहुँ महिप मृदु लच्छ समाना॥1॥

भावार्थ

कैकेयी बेधडक बैठी ऐसी कडवी वाणी कह रही है, जिसे सुनकर स्वयं कठोरता भी अत्यन्त व्याकुल हो उठी। जीभ धनुष है, वचन बहुत से तीर हैं और मानो राजा ही कोमल निशाने के समान हैं॥1॥

जनु कठोरपनु धरें सरीरू। सिखइ धनुषबिद्या बर बीरू॥
सबु प्रसङ्गु रघुपतिहि सुनाई। बैठि मनहुँ तनु धरि निठुराई॥2॥

मूल

जनु कठोरपनु धरें सरीरू। सिखइ धनुषबिद्या बर बीरू॥
सबु प्रसङ्गु रघुपतिहि सुनाई। बैठि मनहुँ तनु धरि निठुराई॥2॥

भावार्थ

(इस सारे साज-समान के साथ) मानो स्वयं कठोरपन श्रेष्ठ वीर का शरीर धारण करके धनुष विद्या सीख रहा है। श्री रघुनाथजी को सब हाल सुनाकर वह ऐसे बैठी है, मानो निष्ठुरता ही शरीर धारण किए हुए हो॥2॥

मन मुसुकाइ भानुकुल भानू। रामु सहज आनन्द निधानू॥
बोले बचन बिगत सब दूषन। मृदु मञ्जुल जनु बाग बिभूषन॥3॥

मूल

मन मुसुकाइ भानुकुल भानू। रामु सहज आनन्द निधानू॥
बोले बचन बिगत सब दूषन। मृदु मञ्जुल जनु बाग बिभूषन॥3॥

भावार्थ

सूर्यकुल के सूर्य, स्वाभाविक ही आनन्दनिधान श्री रामचन्द्रजी मन में मुस्कुराकर सब दूषणों से रहित ऐसे कोमल और सुन्दर वचन बोले जो मानो वाणी के भूषण ही थे-॥3॥

सुनु जननी सोइ सुतु बडभागी। जो पितु मातु बचन अनुरागी॥
तनय मातु पितु तोषनिहारा। दुर्लभ जननि सकल संसारा॥4॥

मूल

सुनु जननी सोइ सुतु बडभागी। जो पितु मातु बचन अनुरागी॥
तनय मातु पितु तोषनिहारा। दुर्लभ जननि सकल संसारा॥4॥

भावार्थ

हे माता! सुनो, वही पुत्र बडभागी है, जो पिता-माता के वचनों का अनुरागी (पालन करने वाला) है। (आज्ञा पालन द्वारा) माता-पिता को सन्तुष्ट करने वाला पुत्र, हे जननी! सारे संसार में दुर्लभ है॥4॥