038

01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

परी न राजहि नीद निसि हेतु जान जगदीसु।
रामु रामु रटि भोरु किय कहइ ना मरमु महीसु॥38॥

मूल

परी न राजहि नीद निसि हेतु जान जगदीसु।
रामु रामु रटि भोरु किय कहइ ना मरमु महीसु॥38॥

भावार्थ

राजा को रातभर नीन्द नहीं आई, इसका कारण जगदीश्वर ही जानें। इन्होन्ने ‘राम राम’ रटकर सबेरा कर दिया, परन्तु इसका भेद राजा कुछ भी नहीं बतलाते॥38॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

आनहु रामहि बेगि बोलाई। समाचार तब पूँछेहु आई॥
चलेउ सुमन्त्रु राय रुख जानी। लखी कुचालि कीन्हि कछु रानी॥1॥

मूल

आनहु रामहि बेगि बोलाई। समाचार तब पूँछेहु आई॥
चलेउ सुमन्त्रु राय रुख जानी। लखी कुचालि कीन्हि कछु रानी॥1॥

भावार्थ

तुम जल्दी राम को बुला लाओ। तब आकर समाचार पूछना। राजा का रुख जानकर सुमन्त्रजी चले, समझ गए कि रानी ने कुछ कुचाल की है॥1॥

सोच बिकल मग परइ न पाऊ। रामहि बोलि कहिहि का राऊ॥
उर धरि धीरजु गयउ दुआरें। पूँछहिं सकल देखि मनु मारें॥2॥

मूल

सोच बिकल मग परइ न पाऊ। रामहि बोलि कहिहि का राऊ॥
उर धरि धीरजु गयउ दुआरें। पूँछहिं सकल देखि मनु मारें॥2॥

भावार्थ

सुमन्त्र सोच से व्याकुल हैं, रास्ते पर पैर नहीं पडता (आगे बढा नहीं जाता), (सोचते हैं-) रामजी को बुलाकर राजा क्या कहेङ्गे? किसी तरह हृदय में धीरज धरकर वे द्वार पर गए। सब लोग उनको मन मारे (उदास) देखकर पूछने लगे॥2॥

समाधानु करि सो सबही का। गयउ जहाँ दिनकर कुल टीका॥
राम सुमन्त्रहि आवत देखा। आदरु कीन्ह पिता सम लेखा॥3॥

मूल

समाधानु करि सो सबही का। गयउ जहाँ दिनकर कुल टीका॥
राम सुमन्त्रहि आवत देखा। आदरु कीन्ह पिता सम लेखा॥3॥

भावार्थ

सब लोगों का समाधान करके (किसी तरह समझा-बुझाकर) सुमन्त्र वहाँ गए, जहाँ सूर्यकुल के तिलक श्री रामचन्द्रजी थे। श्री रामचन्द्रजी ने सुमन्त्र को आते देखा तो पिता के समान समझकर उनका आदर किया॥3॥

निरखि बदनु कहि भूप रजाई। रघुकुलदीपहि चलेउ लेवाई॥
रामु कुभाँति सचिव सँग जाहीं। देखि लोग जहँ तहँ बिलखाहीं॥4॥

मूल

निरखि बदनु कहि भूप रजाई। रघुकुलदीपहि चलेउ लेवाई॥
रामु कुभाँति सचिव सँग जाहीं। देखि लोग जहँ तहँ बिलखाहीं॥4॥

भावार्थ

श्री रामचन्द्रजी के मुख को देखकर और राजा की आज्ञा सुनाकर वे रघुकुल के दीपक श्री रामचन्द्रजी को (अपने साथ) लिवा चले। श्री रामचन्द्रजी मन्त्री के साथ बुरी तरह से (बिना किसी लवाजमे के) जा रहे हैं, यह देखकर लोग जहाँ-तहाँ विषाद कर रहे हैं॥4॥