01 दोहा
विश्वास-प्रस्तुतिः
द्वार भीर सेवक सचिव कहहिं उदित रबि देखि।
जागेउ अजहुँ न अवधपति कारनु कवनु बिसेषि॥37॥
मूल
द्वार भीर सेवक सचिव कहहिं उदित रबि देखि।
जागेउ अजहुँ न अवधपति कारनु कवनु बिसेषि॥37॥
भावार्थ
राजद्वार पर मन्त्रियों और सेवकों की भीड लगी है। वे सब सूर्य को उदय हुआ देखकर कहते हैं कि ऐसा कौन सा विशेष कारण है कि अवधपति दशरथजी अभी तक नहीं जागे?॥37॥
02 चौपाई
विश्वास-प्रस्तुतिः
पछिले पहर भूपु नित जागा। आजु हमहि बड अचरजु लागा॥
जाहु सुमन्त्र जगावहु जाई। कीजिअ काजु रजायसु पाई॥1॥
मूल
पछिले पहर भूपु नित जागा। आजु हमहि बड अचरजु लागा॥
जाहु सुमन्त्र जगावहु जाई। कीजिअ काजु रजायसु पाई॥1॥
भावार्थ
राजा नित्य ही रात के पिछले पहर जाग जाया करते हैं, किन्तु आज हमें बडा आश्चर्य हो रहा है। हे सुमन्त्र! जाओ, जाकर राजा को जगाओ। उनकी आज्ञा पाकर हम सब काम करें॥1॥
गए सुमन्त्रु तब राउर माहीं। देखि भयावन जात डेराहीं॥
धाइ खाई जनु जाइ न हेरा। मानहुँ बिपति बिषाद बसेरा॥2॥
मूल
गए सुमन्त्रु तब राउर माहीं। देखि भयावन जात डेराहीं॥
धाइ खाई जनु जाइ न हेरा। मानहुँ बिपति बिषाद बसेरा॥2॥
भावार्थ
तब सुमन्त्र रावले (राजमहल) में गए, पर महल को भयानक देखकर वे जाते हुए डर रहे हैं। (ऐसा लगता है) मानो दौडकर काट खाएगा, उसकी ओर देखा भी नहीं जाता। मानो विपत्ति और विषाद ने वहाँ डेरा डाल रखा हो॥2॥
पूछें कोउ न ऊतरु देई। गए जेहिं भवन भूप कैकेई॥
कहि जयजीव बैठ सिरु नाई। देखि भूप गति गयउ सुखाई॥3॥
मूल
पूछें कोउ न ऊतरु देई। गए जेहिं भवन भूप कैकेई॥
कहि जयजीव बैठ सिरु नाई। देखि भूप गति गयउ सुखाई॥3॥
भावार्थ
पूछने पर कोई जवाब नहीं देता। वे उस महल में गए, जहाँ राजा और कैकेयी थे ‘जय जीव’ कहकर सिर नवाकर (वन्दना करके) बैठे और राजा की दशा देखकर तो वे सूख ही गए॥3॥
सोच बिकल बिबरन महि परेऊ। मानहु कमल मूलु परिहरेऊ॥
सचिउ सभीत सकइ नहिं पूँछी। बोली असुभ भरी सुभ छूँछी॥4॥
मूल
सोच बिकल बिबरन महि परेऊ। मानहु कमल मूलु परिहरेऊ॥
सचिउ सभीत सकइ नहिं पूँछी। बोली असुभ भरी सुभ छूँछी॥4॥
भावार्थ
(देखा कि-) राजा सोच से व्याकुल हैं, चेहरे का रङ्ग उड गया है। जमीन पर ऐसे पडे हैं, मानो कमल जड छोडकर (जड से उखडकर) (मुर्झाया) पडा हो। मन्त्री मारे डर के कुछ पूछ नहीं सकते। तब अशुभ से भरी हुई और शुभ से विहीन कैकेयी बोली-॥4॥