034

01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

देखी ब्याधि असाध नृपु परेउ धरनि धुनि माथ।
कहत परम आरत बचन राम राम रघुनाथ॥34॥

मूल

देखी ब्याधि असाध नृपु परेउ धरनि धुनि माथ।
कहत परम आरत बचन राम राम रघुनाथ॥34॥

भावार्थ

राजा ने देखा कि रोग असाध्य है, तब वे अत्यन्त आर्तवाणी से ‘हा राम! हा राम! हा रघुनाथ!’ कहते हुए सिर पीटकर जमीन पर गिर पडे॥34॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

ब्याकुल राउ सिथिल सब गाता। करिनि कलपतरु मनहुँ निपाता॥
कण्ठु सूख मुख आव न बानी। जनु पाठीनु दीन बिनु पानी॥1॥

मूल

ब्याकुल राउ सिथिल सब गाता। करिनि कलपतरु मनहुँ निपाता॥
कण्ठु सूख मुख आव न बानी। जनु पाठीनु दीन बिनु पानी॥1॥

भावार्थ

राजा व्याकुल हो गए, उनका सारा शरीर शिथिल पड गया, मानो हथिनी ने कल्पवृक्ष को उखाड फेङ्का हो। कण्ठ सूख गया, मुख से बात नहीं निकलती, मानो पानी के बिना पहिना नामक मछली तडप रही हो॥1॥

पुनि कह कटु कठोर कैकेई। मनहुँ घाय महुँ माहुर देई॥
जौं अन्तहुँ अस करतबु रहेऊ। मागु मागु तुम्ह केहिं बल कहेऊ॥2॥

मूल

पुनि कह कटु कठोर कैकेई। मनहुँ घाय महुँ माहुर देई॥
जौं अन्तहुँ अस करतबु रहेऊ। मागु मागु तुम्ह केहिं बल कहेऊ॥2॥

भावार्थ

कैकेयी फिर कडवे और कठोर वचन बोली, मानो घाव में जहर भर रही हो। (कहती है-) जो अन्त में ऐसा ही करना था, तो आपने ‘माँग, माँग’ किस बल पर कहा था?॥2॥

दुइ कि होइ एक समय भुआला। हँसब ठठाइ फुलाउब गाला॥
दानि कहाउब अरु कृपनाई। होइ कि खेम कुसल रौताई॥3॥

मूल

दुइ कि होइ एक समय भुआला। हँसब ठठाइ फुलाउब गाला॥
दानि कहाउब अरु कृपनाई। होइ कि खेम कुसल रौताई॥3॥

भावार्थ

हे राजा! ठहाका मारकर हँसना और गाल फुलाना- क्या ये दोनों एक साथ हो सकते हैं? दानी भी कहाना और कञ्जूसी भी करना। क्या रजपूती में क्षेम-कुशल भी रह सकती है?(लडाई में बहादुरी भी दिखावें और कहीं चोट भी न लगे!)॥3॥

छाडहु बचनु कि धीरजु धरहू। जनि अबला जिमि करुना करहू॥
तनु तिय तनय धामु धनु धरनी। सत्यसन्ध कहुँ तृन सम बरनी॥4॥

मूल

छाडहु बचनु कि धीरजु धरहू। जनि अबला जिमि करुना करहू॥
तनु तिय तनय धामु धनु धरनी। सत्यसन्ध कहुँ तृन सम बरनी॥4॥

भावार्थ

या तो वचन (प्रतिज्ञा) ही छोड दीजिए या धैर्य धारण कीजिए। यों असहाय स्त्री की भाँति रोइए-पीटिए नहीं। सत्यव्रती के लिए तो शरीर, स्त्री, पुत्र, घर, धन और पृथ्वी- सब तिनके के बराबर कहे गए हैं॥4॥