031

01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

लोभु न रामहि राजु कर बहुत भरत पर प्रीति।
मैं बड छोट बिचारि जियँ करत रहेउँ नृपनीति॥31॥

मूल

लोभु न रामहि राजु कर बहुत भरत पर प्रीति।
मैं बड छोट बिचारि जियँ करत रहेउँ नृपनीति॥31॥

भावार्थ

राम को राज्य का लोभ नहीं है और भरत पर उनका बडा ही प्रेम है। मैं ही अपने मन में बडे-छोटे का विचार करके राजनीति का पालन कर रहा था (बडे को राजतिलक देने जा रहा था)॥31॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

राम सपथ सत कहउँ सुभाऊ। राममातु कछु कहेउ न काऊ॥
मैं सबु कीन्ह तोहि बिनु पूँछें। तेहि तें परेउ मनोरथु छूछें॥1॥

मूल

राम सपथ सत कहउँ सुभाऊ। राममातु कछु कहेउ न काऊ॥
मैं सबु कीन्ह तोहि बिनु पूँछें। तेहि तें परेउ मनोरथु छूछें॥1॥

भावार्थ

राम की सौ बार सौगन्ध खाकर मैं स्वभाव से ही कहता हूँ कि राम की माता (कौसल्या) ने (इस विषय में) मुझसे कभी कुछ नहीं कहा। अवश्य ही मैन्ने तुमसे बिना पूछे यह सब किया। इसी से मेरा मनोरथ खाली गया॥1॥

रिस परिहरु अब मङ्गल साजू। कछु दिन गएँ भरत जुबराजू॥
एकहि बात मोहि दुखु लागा। बर दूसर असमञ्जस मागा॥2॥

मूल

रिस परिहरु अब मङ्गल साजू। कछु दिन गएँ भरत जुबराजू॥
एकहि बात मोहि दुखु लागा। बर दूसर असमञ्जस मागा॥2॥

भावार्थ

अब क्रोध छोड दे और मङ्गल साज सज। कुछ ही दिनों बाद भरत युवराज हो जाएँगे। एक ही बात का मुझे दुःख लगा कि तूने दूसरा वरदान बडी अडचन का माँगा॥2॥

अजहूँ हृदय जरत तेहि आँचा। रिस परिहास कि साँचेहुँ साँचा॥
कहु तजि रोषु राम अपराधू। सबु कोउ कहइ रामु सुठि साधू॥3॥

मूल

अजहूँ हृदय जरत तेहि आँचा। रिस परिहास कि साँचेहुँ साँचा॥
कहु तजि रोषु राम अपराधू। सबु कोउ कहइ रामु सुठि साधू॥3॥

भावार्थ

उसकी आँच से अब भी मेरा हृदय जल रहा है। यह दिल्लगी में, क्रोध में अथवा सचमुच ही (वास्तव में) सच्चा है? क्रोध को त्यागकर राम का अपराध तो बता। सब कोई तो कहते हैं कि राम बडे ही साधु हैं॥3॥

तुहूँ सराहसि करसि सनेहू। अब सुनि मोहि भयउ सन्देहू॥
जासु सुभाउ अरिहि अनूकूला। सो किमि करिहि मातु प्रतिकूला॥4॥

मूल

तुहूँ सराहसि करसि सनेहू। अब सुनि मोहि भयउ सन्देहू॥
जासु सुभाउ अरिहि अनूकूला। सो किमि करिहि मातु प्रतिकूला॥4॥

भावार्थ

तू स्वयं भी राम की सराहना करती और उन पर स्नेह किया करती थी। अब यह सुनकर मुझे सन्देह हो गया है (कि तुम्हारी प्रशंसा और स्नेह कहीं झूठे तो न थे?) जिसका स्वभाव शत्रु को भी अनूकल है, वह माता के प्रतिकूल आचरण क्यों कर करेगा?॥4॥