028

01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

भूप मनोरथ सुभग बनु सुख सुबिहङ्ग समाजु।
भिल्लिनि जिमि छाडन चहति बचनु भयङ्करु बाजु॥28॥

मूल

भूप मनोरथ सुभग बनु सुख सुबिहङ्ग समाजु।
भिल्लिनि जिमि छाडन चहति बचनु भयङ्करु बाजु॥28॥

भावार्थ

राजा का मनोरथ सुन्दर वन है, सुख सुन्दर पक्षियों का समुदाय है। उस पर भीलनी की तरह कैकेयी अपना वचन रूपी भयङ्कर बाज छोडना चाहती है॥28॥

मासपारायण, तेरहवाँ विश्राम

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुनहु प्रानप्रिय भावत जी का। देहु एक बर भरतहि टीका॥
मागउँ दूसर बर कर जोरी। पुरवहु नाथ मनोरथ मोरी॥1॥

मूल

सुनहु प्रानप्रिय भावत जी का। देहु एक बर भरतहि टीका॥
मागउँ दूसर बर कर जोरी। पुरवहु नाथ मनोरथ मोरी॥1॥

भावार्थ

(वह बोली-) हे प्राण प्यारे! सुनिए, मेरे मन को भाने वाला एक वर तो दीजिए, भरत को राजतिलक और हे नाथ! दूसरा वर भी मैं हाथ जोडकर माँगती हूँ, मेरा मनोरथ पूरा कीजिए-॥1॥

तापस बेष बिसेषि उदासी। चौदह बरिस रामु बनबासी॥
सुनि मृदु बचन भूप हियँ सोकू। ससि कर छुअत बिकल जिमि कोकू॥2॥

मूल

तापस बेष बिसेषि उदासी। चौदह बरिस रामु बनबासी॥
सुनि मृदु बचन भूप हियँ सोकू। ससि कर छुअत बिकल जिमि कोकू॥2॥

भावार्थ

तपस्वियों के वेष में विशेष उदासीन भाव से (राज्य और कुटुम्ब आदि की ओर से भलीभाँति उदासीन होकर विरक्त मुनियों की भाँति) राम चौदह वर्ष तक वन में निवास करें। कैकेयी के कोमल (विनययुक्त) वचन सुनकर राजा के हृदय में ऐसा शोक हुआ जैसे चन्द्रमा की किरणों के स्पर्श से चकवा विकल हो जाता है॥2॥

गयउ सहमि नहिं कछु कहि आवा। जनु सचान बन झपटेउ लावा॥
बिबरन भयउ निपट नरपालू। दामिनि हनेउ मनहुँ तरु तालू॥3॥

मूल

गयउ सहमि नहिं कछु कहि आवा। जनु सचान बन झपटेउ लावा॥
बिबरन भयउ निपट नरपालू। दामिनि हनेउ मनहुँ तरु तालू॥3॥

भावार्थ

राजा सहम गए, उनसे कुछ कहते न बना मानो बाज वन में बटेर पर झपटा हो। राजा का रङ्ग बिलकुल उड गया, मानो ताड के पेड को बिजली ने मारा हो (जैसे ताड के पेड पर बिजली गिरने से वह झुलसकर बदरङ्गा हो जाता है, वही हाल राजा का हुआ)॥3॥

माथें हाथ मूदि दोउ लोचन। तनु धरि सोचु लाग जनु सोचन॥
मोर मनोरथु सुरतरु फूला। फरत करिनि जिमि हतेउ समूला॥4॥

मूल

माथें हाथ मूदि दोउ लोचन। तनु धरि सोचु लाग जनु सोचन॥
मोर मनोरथु सुरतरु फूला। फरत करिनि जिमि हतेउ समूला॥4॥

भावार्थ

माथे पर हाथ रखकर, दोनों नेत्र बन्द करके राजा ऐसे सोच करने लगे, मानो साक्षात्‌ सोच ही शरीर धारण कर सोच कर रहा हो। (वे सोचते हैं- हाय!) मेरा मनोरथ रूपी कल्पवृक्ष फूल चुका था, परन्तु फलते समय कैकेयी ने हथिनी की तरह उसे जड समेत उखाडकर नष्ट कर डाला॥4॥

अवध उजारि कीन्हि कैकेईं। दीन्हिसि अचल बिपति कै नेईं॥5॥

मूल

अवध उजारि कीन्हि कैकेईं। दीन्हिसि अचल बिपति कै नेईं॥5॥

भावार्थ

कैकेयी ने अयोध्या को उजाड कर दिया और विपत्ति की अचल (सुदृढ) नींव डाल दी॥5॥