027

01 दोहा

मागु मागु पै कहहु पिय कबहुँ न देहु न लेहु।
देन कहेहु बरदान दुइ तेउ पावत सन्देहु॥27॥

मूल

मागु मागु पै कहहु पिय कबहुँ न देहु न लेहु।
देन कहेहु बरदान दुइ तेउ पावत सन्देहु॥27॥

भावार्थ

हे प्रियतम! आप माँग-माँग तो कहा करते हैं, पर देते-लेते कभी कुछ भी नहीं। आपने दो वरदान देने को कहा था, उनके भी मिलने में सन्देह है॥27॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

जानेउँ मरमु राउ हँसि कहई। तुम्हहि कोहाब परम प्रिय अहई॥
थाती राखि न मागिहु काऊ। बिसरि गयउ मोहि भोर सुभाऊ॥1॥

मूल

जानेउँ मरमु राउ हँसि कहई। तुम्हहि कोहाब परम प्रिय अहई॥
थाती राखि न मागिहु काऊ। बिसरि गयउ मोहि भोर सुभाऊ॥1॥

भावार्थ

राजा ने हँसकर कहा कि अब मैं तुम्हारा मर्म (मतलब) समझा। मान करना तुम्हें परम प्रिय है। तुमने उन वरों को थाती (धरोहर) रखकर फिर कभी माँगा ही नहीं और मेरा भूलने का स्वभाव होने से मुझे भी वह प्रसङ्ग याद नहीं रहा॥1॥

झूठेहुँ हमहि दोषु जनि देहू। दुइ कै चारि मागि मकु लेहू॥
रघुकुल रीति सदा चलि आई। प्रान जाहुँ परु बचनु न जाई॥2॥

मूल

झूठेहुँ हमहि दोषु जनि देहू। दुइ कै चारि मागि मकु लेहू॥
रघुकुल रीति सदा चलि आई। प्रान जाहुँ परु बचनु न जाई॥2॥

भावार्थ

मुझे झूठ-मूठ दोष मत दो। चाहे दो के बदले चार माँग लो। रघुकुल में सदा से यह रीति चली आई है कि प्राण भले ही चले जाएँ, पर वचन नहीं जाता॥2॥

नहिं असत्य सम पातक पुञ्जा। गिरि सम होहिं कि कोटिक गुञ्जा॥
सत्यमूल सब सुकृत सुहाए। बेद पुरान बिदित मनु गाए॥3॥

मूल

नहिं असत्य सम पातक पुञ्जा। गिरि सम होहिं कि कोटिक गुञ्जा॥
सत्यमूल सब सुकृत सुहाए। बेद पुरान बिदित मनु गाए॥3॥

भावार्थ

असत्य के समान पापों का समूह भी नहीं है। क्या करोडों घुँघचियाँ मिलकर भी कहीं पहाड के समान हो सकती हैं। ‘सत्य’ ही समस्त उत्तम सुकृतों (पुण्यों) की जड है। यह बात वेद-पुराणों में प्रसिद्ध है और मनुजी ने भी यही कहा है॥3॥

तेहि पर राम सपथ करि आई। सुकृत सनेह अवधि रघुराई॥
बाद दृढाइ कुमति हँसि बोली। कुमत कुबिहग कुलह जनु खोली॥4॥

मूल

तेहि पर राम सपथ करि आई। सुकृत सनेह अवधि रघुराई॥
बाद दृढाइ कुमति हँसि बोली। कुमत कुबिहग कुलह जनु खोली॥4॥

भावार्थ

उस पर मेरे द्वारा श्री रामजी की शपथ करने में आ गई (मुँह से निकल पडी)। श्री रघुनाथजी मेरे सुकृत (पुण्य) और स्नेह की सीमा हैं। इस प्रकार बात पक्की कराके दुर्बुद्धि कैकेयी हँसकर बोली, मानो उसने कुमत (बुरे विचार) रूपी दुष्ट पक्षी (बाज) (को छोडने के लिए उस) की कुलही (आँखों पर की टोपी) खोल दी॥4॥