026

01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

यह सुनि मन गुनि सपथ बडि बिहसि उठी मतिमन्द।
भूषन सजति बिलोकिमृगु मनहुँ किरातिनि फन्द॥26॥

मूल

यह सुनि मन गुनि सपथ बडि बिहसि उठी मतिमन्द।
भूषन सजति बिलोकिमृगु मनहुँ किरातिनि फन्द॥26॥

भावार्थ

यह सुनकर और मन में रामजी की बडी सौङ्गन्ध को विचारकर मन्दबुद्धि कैकेयी हँसती हुई उठी और गहने पहनने लगी, मानो कोई भीलनी मृग को देखकर फन्दा तैयार कर रही हो!॥26॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

पुनि कह राउ सुहृद जियँ जानी। प्रेम पुलकि मृदु मञ्जुल बानी॥
भामिनि भयउ तोर मनभावा। घर घर नगर अनन्द बधावा॥1॥

मूल

पुनि कह राउ सुहृद जियँ जानी। प्रेम पुलकि मृदु मञ्जुल बानी॥
भामिनि भयउ तोर मनभावा। घर घर नगर अनन्द बधावा॥1॥

भावार्थ

अपने जी में कैकेयी को सुहृद् जानकर राजा दशरथजी प्रेम से पुलकित होकर कोमल और सुन्दर वाणी से फिर बोले- हे भामिनि! तेरा मनचीता हो गया। नगर में घर-घर आनन्द के बधावे बज रहे हैं॥1॥

रामहि देउँ कालि जुबराजू। सजहि सुलोचनि मङ्गल साजू॥
दलकि उठेउ सुनि हृदउ कठोरू। जनु छुइ गयउ पाक बरतोरू॥2॥

मूल

रामहि देउँ कालि जुबराजू। सजहि सुलोचनि मङ्गल साजू॥
दलकि उठेउ सुनि हृदउ कठोरू। जनु छुइ गयउ पाक बरतोरू॥2॥

भावार्थ

मैं कल ही राम को युवराज पद दे रहा हूँ, इसलिए हे सुनयनी! तू मङ्गल साज सज। यह सुनते ही उसका कठोर हृदय दलक उठा (फटने लगा)। मानो पका हुआ बालतोड (फोडा) छू गया हो॥2॥

ऐसिउ पीर बिहसि तेहिं गोई। चोर नारि जिमि प्रगटि न रोई॥
लखहिं न भूप कपट चतुराई। कोटि कुटिल मनि गुरू पढाई॥3॥

मूल

ऐसिउ पीर बिहसि तेहिं गोई। चोर नारि जिमि प्रगटि न रोई॥
लखहिं न भूप कपट चतुराई। कोटि कुटिल मनि गुरू पढाई॥3॥

भावार्थ

ऐसी भारी पीडा को भी उसने हँसकर छिपा लिया, जैसे चोर की स्त्री प्रकट होकर नहीं रोती (जिसमें उसका भेद न खुल जाए)। राजा उसकी कपट-चतुराई को नहीं लख रहे हैं, क्योङ्कि वह करोडों कुटिलों की शिरोमणि गुरु मन्थरा की पढाई हुई है॥3॥

जद्यपि नीति निपुन नरनाहू। नारिचरित जलनिधि अवगाहू॥
कपट सनेहु बढाई बहोरी। बोली बिहसि नयन मुहु मोरी॥4॥

मूल

जद्यपि नीति निपुन नरनाहू। नारिचरित जलनिधि अवगाहू॥
कपट सनेहु बढाई बहोरी। बोली बिहसि नयन मुहु मोरी॥4॥

भावार्थ

यद्यपि राजा नीति में निपुण हैं, परन्तु त्रियाचरित्र अथाह समुद्र है। फिर वह कपटयुक्त प्रेम बढाकर (ऊपर से प्रेम दिखाकर) नेत्र और मुँह मोडकर हँसती हुई बोली-॥4॥