024

01 दोहा

साँझ समय सानन्द नृपु गयउ कैकई गेहँ।
गवनु निठुरता निकट किय जनु धरि देह सनेहँ॥24॥

मूल

साँझ समय सानन्द नृपु गयउ कैकई गेहँ।
गवनु निठुरता निकट किय जनु धरि देह सनेहँ॥24॥

भावार्थ

सन्ध्या के समय राजा दशरथ आनन्द के साथ कैकेयी के महल में गए। मानो साक्षात स्नेह ही शरीर धारण कर निष्ठुरता के पास गया हो!॥24॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

कोपभवन सुनि सकुचेउ राऊ। भय बस अगहुड परइ न पाऊ॥
सुरपति बसइ बाहँबल जाकें। नरपति सकल रहहिं रुख ताकें॥1॥

मूल

कोपभवन सुनि सकुचेउ राऊ। भय बस अगहुड परइ न पाऊ॥
सुरपति बसइ बाहँबल जाकें। नरपति सकल रहहिं रुख ताकें॥1॥

भावार्थ

कोप भवन का नाम सुनकर राजा सहम गए। डर के मारे उनका पाँव आगे को नहीं पडता। स्वयं देवराज इन्द्र जिनकी भुजाओं के बल पर (राक्षसों से निर्भय होकर) बसता है और सम्पूर्ण राजा लोग जिनका रुख देखते रहते हैं॥1॥

सो सुनि तिय रिस गयउ सुखाई। देखहु काम प्रताप बडाई॥
सूल कुलिस असि अँगवनिहारे। ते रतिनाथ सुमन सर मारे॥2॥

मूल

सो सुनि तिय रिस गयउ सुखाई। देखहु काम प्रताप बडाई॥
सूल कुलिस असि अँगवनिहारे। ते रतिनाथ सुमन सर मारे॥2॥

भावार्थ

वही राजा दशरथ स्त्री का क्रोध सुनकर सूख गए। कामदेव का प्रताप और महिमा तो देखिए। जो त्रिशूल, वज्र और तलवार आदि की चोट अपने अङ्गों पर सहने वाले हैं, वे रतिनाथ कामदेव के पुष्पबाण से मारे गए॥2॥

सभय नरेसु प्रिया पहिं गयऊ। देखि दसा दुखु दारुन भयऊ॥
भूमि सयन पटु मोट पुराना। दिए डारि तन भूषन नाना॥3॥

मूल

सभय नरेसु प्रिया पहिं गयऊ। देखि दसा दुखु दारुन भयऊ॥
भूमि सयन पटु मोट पुराना। दिए डारि तन भूषन नाना॥3॥

भावार्थ

राजा डरते-डरते अपनी प्यारी कैकेयी के पास गए। उसकी दशा देखकर उन्हें बडा ही दुःख हुआ। कैकेयी जमीन पर पडी है। पुराना मोटा कपडा पहने हुए है। शरीर के नाना आभूषणों को उतारकर फेङ्क दिया है।

कुमतिहि कसि कुबेषता फाबी। अनअहिवातु सूच जनु भाबी॥
जाइ निकट नृपु कह मृदु बानी। प्रानप्रिया केहि हेतु रिसानी॥4॥

मूल

कुमतिहि कसि कुबेषता फाबी। अनअहिवातु सूच जनु भाबी॥
जाइ निकट नृपु कह मृदु बानी। प्रानप्रिया केहि हेतु रिसानी॥4॥

भावार्थ

उस दुर्बुद्धि कैकेयी को यह कुवेषता (बुरा वेष) कैसी फब रही है, मानो भावी विधवापन की सूचना दे रही हो। राजा उसके पास जाकर कोमल वाणी से बोले- हे प्राणप्रिये! किसलिए रिसाई (रूठी) हो?॥4॥

03 छन्द

विश्वास-प्रस्तुतिः

केहि हेतु रानि रिसानि परसत पानि पतिहि नेवारई।
मानहुँ सरोष भुअङ्ग भामिनि बिषम भाँति निहारई॥
दोउ बासना रसना दसन बर मरम ठाहरु देखई।
तुलसी नृपति भवतब्यता बस काम कौतुक लेखई॥

मूल

केहि हेतु रानि रिसानि परसत पानि पतिहि नेवारई।
मानहुँ सरोष भुअङ्ग भामिनि बिषम भाँति निहारई॥
दोउ बासना रसना दसन बर मरम ठाहरु देखई।
तुलसी नृपति भवतब्यता बस काम कौतुक लेखई॥

भावार्थ

‘हे रानी! किसलिए रूठी हो?’ यह कहकर राजा उसे हाथ से स्पर्श करते हैं, तो वह उनके हाथ को (झटककर) हटा देती है और ऐसे देखती है मानो क्रोध में भरी हुई नागिन क्रूर दृष्टि से देख रही हो। दोनों (वरदानों की) वासनाएँ उस नागिन की दो जीभें हैं और दोनों वरदान दाँत हैं, वह काटने के लिए मर्मस्थान देख रही है। तुलसीदासजी कहते हैं कि राजा दशरथ होनहार के वश में होकर इसे (इस प्रकार हाथ झटकने और नागिन की भाँति देखने को) कामदेव की क्रीडा ही समझ रहे हैं।