01 दोहा
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रमुदित पुर नर नारि सब सजहिं सुमङ्गलचार।
एक प्रबिसहिं एक निर्गमहिं भीर भूप दरबार॥23॥
मूल
प्रमुदित पुर नर नारि सब सजहिं सुमङ्गलचार।
एक प्रबिसहिं एक निर्गमहिं भीर भूप दरबार॥23॥
भावार्थ
बडे ही आनन्दित होकर नगर के सब स्त्री-पुरुष शुभ मङ्गलाचार के साथ सज रहे हैं। कोई भीतर जाता है, कोई बाहर निकलता है, राजद्वार में बडी भीड हो रही है॥23॥
02 चौपाई
विश्वास-प्रस्तुतिः
बाल सखा सुनि हियँ हरषाहीं। मिलि दस पाँच राम पहिं जाहीं॥
प्रभु आदरहिं प्रेमु पहिचानी। पूँछहिं कुसल खेम मृदु बानी॥1॥
मूल
बाल सखा सुनि हियँ हरषाहीं। मिलि दस पाँच राम पहिं जाहीं॥
प्रभु आदरहिं प्रेमु पहिचानी। पूँछहिं कुसल खेम मृदु बानी॥1॥
भावार्थ
श्री रामचन्द्रजी के बाल सखा राजतिलक का समाचार सुनकर हृदय में हर्षित होते हैं। वे दस-पाँच मिलकर श्री रामचन्द्रजी के पास जाते हैं। प्रेम पहचानकर प्रभु श्री रामचन्द्रजी उनका आदर करते हैं और कोमल वाणी से कुशल क्षेम पूछते हैं॥1॥
फिरहिं भवन प्रिय आयसु पाई। करत परसपर राम बडाई॥
को रघुबीर सरिस संसारा। सीलु सनेहु निबाहनिहारा॥2॥
मूल
फिरहिं भवन प्रिय आयसु पाई। करत परसपर राम बडाई॥
को रघुबीर सरिस संसारा। सीलु सनेहु निबाहनिहारा॥2॥
भावार्थ
अपने प्रिय सखा श्री रामचन्द्रजी की आज्ञा पाकर वे आपस में एक-दूसरे से श्री रामचन्द्रजी की बडाई करते हुए घर लौटते हैं और कहते हैं- संसार में श्री रघुनाथजी के समान शील और स्नेह को निबाहने वाला कौन है?॥2॥
जेहिं-जेहिं जोनि करम बस भ्रमहीं। तहँ तहँ ईसु देउ यह हमहीं॥
सेवक हम स्वामी सियनाहू। होउ नात यह ओर निबाहू॥3॥
मूल
जेहिं-जेहिं जोनि करम बस भ्रमहीं। तहँ तहँ ईसु देउ यह हमहीं॥
सेवक हम स्वामी सियनाहू। होउ नात यह ओर निबाहू॥3॥
भावार्थ
भगवान हमें यही दें कि हम अपने कर्मवश भ्रमते हुए जिस-जिस योनि में जन्में, वहाँ-वहाँ (उस-उस योनि में) हम तो सेवक हों और सीतापति श्री रामचन्द्रजी हमारे स्वामी हों और यह नाता अन्त तक निभ जाए॥
अस अभिलाषु नगर सब काहू। कैकयसुता हृदयँ अति दाहू॥
को न कुसङ्गति पाइ नसाई। रहइ न नीच मतें चतुराई॥4॥
मूल
अस अभिलाषु नगर सब काहू। कैकयसुता हृदयँ अति दाहू॥
को न कुसङ्गति पाइ नसाई। रहइ न नीच मतें चतुराई॥4॥
भावार्थ
नगर में सबकी ऐसी ही अभिलाषा है, परन्तु कैकेयी के हृदय में बडी जलन हो रही है। कुसङ्गति पाकर कौन नष्ट नहीं होता। नीच के मत के अनुसार चलने से चतुराई नहीं रह जाती॥4॥