01 दोहा
विश्वास-प्रस्तुतिः
तेहि अवसर आए लखन मगन प्रेम आनन्द।
सनमाने प्रिय बचन कहि रघुकुल कैरव चन्द॥10॥
मूल
तेहि अवसर आए लखन मगन प्रेम आनन्द।
सनमाने प्रिय बचन कहि रघुकुल कैरव चन्द॥10॥
भावार्थ
उसी समय प्रेम और आनन्द में मग्न लक्ष्मणजी आए। रघुकुल रूपी कुमुद के खिलाने वाले चन्द्रमा श्री रामचन्द्रजी ने प्रिय वचन कहकर उनका सम्मान किया॥10॥
02 चौपाई
विश्वास-प्रस्तुतिः
बाजहिं बाजने बिबिध बिधाना। पुर प्रमोदु नहिं जाइ बखाना॥
भरत आगमनु सकल मनावहिं। आवहुँ बेगि नयन फलु पावहिं॥1॥
मूल
बाजहिं बाजने बिबिध बिधाना। पुर प्रमोदु नहिं जाइ बखाना॥
भरत आगमनु सकल मनावहिं। आवहुँ बेगि नयन फलु पावहिं॥1॥
भावार्थ
बहुत प्रकार के बाजे बज रहे हैं। नगर के अतिशय आनन्द का वर्णन नहीं हो सकता। सब लोग भरतजी का आगमन मना रहे हैं और कह रहे हैं कि वे भी शीघ्र आवें और (राज्याभिषेक का उत्सव देखकर) नेत्रों का फल प्राप्त करें॥1॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
हाट बाट घर गलीं अथाईं। कहहिं परसपर लोग लोगाईं॥
कालि लगन भलि केतिक बारा। पूजिहि बिधि अभिलाषु हमारा॥2॥
मूल
हाट बाट घर गलीं अथाईं। कहहिं परसपर लोग लोगाईं॥
कालि लगन भलि केतिक बारा। पूजिहि बिधि अभिलाषु हमारा॥2॥
भावार्थ
बाजार, रास्ते, घर, गली और चबूतरों पर (जहाँ-तहाँ) पुरुष और स्त्री आपस में यही कहते हैं कि कल वह शुभ लग्न (मुहूर्त) कितने समय है, जब विधाता हमारी अभिलाषा पूरी करेङ्गे॥2॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कनक सिङ्घासन सीय समेता। बैठहिं रामु होइ चित चेता॥
सकल कहहिं कब होइहि काली। बिघन मनावहिं देव कुचाली॥3॥
मूल
कनक सिङ्घासन सीय समेता। बैठहिं रामु होइ चित चेता॥
सकल कहहिं कब होइहि काली। बिघन मनावहिं देव कुचाली॥3॥
भावार्थ
जब सीताजी सहित श्री रामचन्द्रजी सुवर्ण के सिंहासन पर विराजेङ्गे और हमारा मनचीता होगा (मनःकामना पूरी होगी)। इधर तो सब यह कह रहे हैं कि कल कब होगा, उधर कुचक्री देवता विघ्न मना रहे हैं॥3॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तिन्हहि सोहाइ न अवध बधावा। चोरहि चन्दिनि राति न भावा॥
सारद बोलि बिनय सुर करहीं। बारहिं बार पाय लै परहीं॥4॥
मूल
तिन्हहि सोहाइ न अवध बधावा। चोरहि चन्दिनि राति न भावा॥
सारद बोलि बिनय सुर करहीं। बारहिं बार पाय लै परहीं॥4॥
भावार्थ
उन्हें (देवताओं को) अवध के बधावे नहीं सुहाते, जैसे चोर को चाँदनी रात नहीं भाती। सरस्वतीजी को बुलाकर देवता विनय कर रहे हैं और बार-बार उनके पैरों को पकडकर उन पर गिरते हैं॥4॥