009

01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुनि सनेह साने बचन मुनि रघुबरहि प्रसंस।
राम कस न तुम्ह कहहु अस हंस बंस अवतंस॥9॥

मूल

सुनि सनेह साने बचन मुनि रघुबरहि प्रसंस।
राम कस न तुम्ह कहहु अस हंस बंस अवतंस॥9॥

भावार्थ

(श्री रामचन्द्रजी के) प्रेम में सने हुए वचनों को सुनकर मुनि वशिष्ठजी ने श्री रघुनाथजी की प्रशंसा करते हुए कहा कि हे राम! भला आप ऐसा क्यों न कहें। आप सूर्यवंश के भूषण जो हैं॥9॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

बरनि राम गुन सीलु सुभाऊ। बोले प्रेम पुलकि मुनिराऊ॥
भूप सजेउ अभिषेक समाजू। चाहत देन तुम्हहि जुबराजू॥1॥

मूल

बरनि राम गुन सीलु सुभाऊ। बोले प्रेम पुलकि मुनिराऊ॥
भूप सजेउ अभिषेक समाजू। चाहत देन तुम्हहि जुबराजू॥1॥

भावार्थ

श्री रामचन्द्रजी के गुण, शील और स्वभाव का बखान कर, मुनिराज प्रेम से पुलकित होकर बोले- (हे रामचन्द्रजी!) राजा (दशरथजी) ने राज्याभिषेक की तैयारी की है। वे आपको युवराज पद देना चाहते हैं॥1॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

राम करहु सब सञ्जम आजू। जौं बिधि कुसल निबाहै काजू॥
गुरु सिख देइ राय पहिं गयऊ। राम हृदयँ अस बिसमउ भयऊ॥2॥

मूल

राम करहु सब सञ्जम आजू। जौं बिधि कुसल निबाहै काजू॥
गुरु सिख देइ राय पहिं गयऊ। राम हृदयँ अस बिसमउ भयऊ॥2॥

भावार्थ

(इसलिए) हे रामजी! आज आप (उपवास, हवन आदि विधिपूर्वक) सब संयम कीजिए, जिससे विधाता कुशलपूर्वक इस काम को निबाह दें (सफल कर दें)। गुरुजी शिक्षा देकर राजा दशरथजी के पास चले गए। श्री रामचन्द्रजी के हृदय में (यह सुनकर) इस बात का खेद हुआ कि-॥2॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जनमे एक सङ्ग सब भाई। भोजन सयन केलि लरिकाई॥
करनबेध उपबीत बिआहा। सङ्ग सङ्ग सब भए उछाहा॥3॥

मूल

जनमे एक सङ्ग सब भाई। भोजन सयन केलि लरिकाई॥
करनबेध उपबीत बिआहा। सङ्ग सङ्ग सब भए उछाहा॥3॥

भावार्थ

हम सब भाई एक ही साथ जन्मे, खाना, सोना, लडकपन के खेल-कूद, कनछेदन, यज्ञोपवीत और विवाह आदि उत्सव सब साथ-साथ ही हुए॥3॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिमल बंस यहु अनुचित एकू। बन्धु बिहाइ बडेहि अभिषेकू॥
प्रभु सप्रेम पछितानि सुहाई। हरउ भगत मन कै कुटिलाई॥4॥

मूल

बिमल बंस यहु अनुचित एकू। बन्धु बिहाइ बडेहि अभिषेकू॥
प्रभु सप्रेम पछितानि सुहाई। हरउ भगत मन कै कुटिलाई॥4॥

भावार्थ

पर इस निर्मल वंश में यही एक अनुचित बात हो रही है कि और सब भाइयों को छोडकर राज्याभिषेक एक बडे का ही (मेरा ही) होता है। (तुलसीदासजी कहते हैं कि) प्रभु श्री रामचन्द्रजी का यह सुन्दर प्रेमपूर्ण पछतावा भक्तों के मन की कुटिलता को हरण करे॥4॥