01 श्लोक
विश्वास-प्रस्तुतिः
यस्याङ्के च विभाति भूधरसुता देवापगा मस्तके
भाले बालविधुर्गले च गरलं यस्योरसि व्यालराट्।
सोऽयं भूतिविभूषणः सुरवरः सर्वाधिपः सर्वदा
शर्वः सर्वगतः शिवः शशिनिभः श्री शङ्करः पातु माम्॥1॥
मूल
यस्याङ्के च विभाति भूधरसुता देवापगा मस्तके
भाले बालविधुर्गले च गरलं यस्योरसि व्यालराट्।
सोऽयं भूतिविभूषणः सुरवरः सर्वाधिपः सर्वदा
शर्वः सर्वगतः शिवः शशिनिभः श्री शङ्करः पातु माम्॥1॥
भावार्थ
जिनकी गोद में हिमाचलसुता पार्वतीजी, मस्तक पर गङ्गाजी, ललाट पर द्वितीया का चन्द्रमा, कण्ठ में हलाहल विष और वक्षःस्थल पर सर्पराज शेषजी सुशोभित हैं, वे भस्म से विभूषित, देवताओं में श्रेष्ठ, सर्वेश्वर, संहारकर्ता (या भक्तों के पापनाशक), सर्वव्यापक, कल्याण रूप, चन्द्रमा के समान शुभ्रवर्ण श्री शङ्करजी सदा मेरी रक्षा करें॥1॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रसन्नतां या न गताभिषेकतस्तथा न मम्ले वनवासदुःखतः।
मुखाम्बुजश्री रघुनन्दनस्य मे सदास्तु सा मञ्जुलमङ्गलप्रदा॥2॥
मूल
प्रसन्नतां या न गताभिषेकतस्तथा न मम्ले वनवासदुःखतः।
मुखाम्बुजश्री रघुनन्दनस्य मे सदास्तु सा मञ्जुलमङ्गलप्रदा॥2॥
भावार्थ
रघुकुल को आनन्द देने वाले श्री रामचन्द्रजी के मुखारविन्द की जो शोभा राज्याभिषेक से (राज्याभिषेक की बात सुनकर) न तो प्रसन्नता को प्राप्त हुई और न वनवास के दुःख से मलिन ही हुई, वह (मुखकमल की छबि) मेरे लिए सदा सुन्दर मङ्गलों की देने वाली हो॥2॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नीलाम्बुजश्यामलकोमलाङ्ग सीतासमारोपितवामभागम्।
पाणौ महासायकचारुचापं नमामि रामं रघुवंशनाथम्॥3॥
मूल
नीलाम्बुजश्यामलकोमलाङ्ग सीतासमारोपितवामभागम्।
पाणौ महासायकचारुचापं नमामि रामं रघुवंशनाथम्॥3॥
भावार्थ
नीले कमल के समान श्याम और कोमल जिनके अङ्ग हैं, श्री सीताजी जिनके वाम भाग में विराजमान हैं और जिनके हाथों में (क्रमशः) अमोघ बाण और सुन्दर धनुष है, उन रघुवंश के स्वामी श्री रामचन्द्रजी को मैं नमस्कार करता हूँ॥3॥
02 दोहा
विश्वास-प्रस्तुतिः
श्री गुरु चरन सरोज रज निज मनु मुकुरु सुधारि।
बरनउँ रघुबर बिमल जसु जो दायकु फल चारि॥
मूल
श्री गुरु चरन सरोज रज निज मनु मुकुरु सुधारि।
बरनउँ रघुबर बिमल जसु जो दायकु फल चारि॥
भावार्थ
श्री गुरुजी के चरण कमलों की रज से अपने मन रूपी दर्पण को साफ करके मैं श्री रघुनाथजी के उस निर्मल यश का वर्णन करता हूँ, जो चारों फलों को (धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष को) देने वाला है।
03 चौपाई
विश्वास-प्रस्तुतिः
जब तें रामु ब्याहि घर आए। नित नव मङ्गल मोद बधाए॥
भुवन चारिदस भूधर भारी। सुकृत मेघ बरषहिं सुख बारी॥1॥
मूल
जब तें रामु ब्याहि घर आए। नित नव मङ्गल मोद बधाए॥
भुवन चारिदस भूधर भारी। सुकृत मेघ बरषहिं सुख बारी॥1॥
भावार्थ
जब से श्री रामचन्द्रजी विवाह करके घर आए, तब से (अयोध्या में) नित्य नए मङ्गल हो रहे हैं और आनन्द के बधावे बज रहे हैं। चौदहों लोक रूपी बडे भारी पर्वतों पर पुण्य रूपी मेघ सुख रूपी जल बरसा रहे हैं॥1॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
रिधि सिधि सम्पति नदीं सुहाई। उमगि अवध अम्बुधि कहुँ आई॥
मनिगन पुर नर नारि सुजाती। सुचि अमोल सुन्दर सब भाँती॥2॥
मूल
रिधि सिधि सम्पति नदीं सुहाई। उमगि अवध अम्बुधि कहुँ आई॥
मनिगन पुर नर नारि सुजाती। सुचि अमोल सुन्दर सब भाँती॥2॥
भावार्थ
ऋद्धि-सिद्धि और सम्पत्ति रूपी सुहावनी नदियाँ उमड-उमडकर अयोध्या रूपी समुद्र में आ मिलीं। नगर के स्त्री-पुरुष अच्छी जाति के मणियों के समूह हैं, जो सब प्रकार से पवित्र, अमूल्य और सुन्दर हैं॥2॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कहि न जाइ कछु नगर बिभूती। जनु एतनिअ बिरञ्चि करतूती॥
सब बिधि सब पुर लोग सुखारी। रामचन्द मुख चन्दु निहारी॥3॥
मूल
कहि न जाइ कछु नगर बिभूती। जनु एतनिअ बिरञ्चि करतूती॥
सब बिधि सब पुर लोग सुखारी। रामचन्द मुख चन्दु निहारी॥3॥
भावार्थ
नगर का ऐश्वर्य कुछ कहा नहीं जाता। ऐसा जान पडता है, मानो ब्रह्माजी की कारीगरी बस इतनी ही है। सब नगर निवासी श्री रामचन्द्रजी के मुखचन्द्र को देखकर सब प्रकार से सुखी हैं॥3॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मुदित मातु सब सखीं सहेली। फलित बिलोकि मनोरथ बेली॥
राम रूपु गुन सीलु सुभाऊ। प्रमुदित होइ देखि सुनि राऊ॥4॥
मूल
मुदित मातु सब सखीं सहेली। फलित बिलोकि मनोरथ बेली॥
राम रूपु गुन सीलु सुभाऊ। प्रमुदित होइ देखि सुनि राऊ॥4॥
भावार्थ
सब माताएँ और सखी-सहेलियाँ अपनी मनोरथ रूपी बेल को फली हुई देखकर आनन्दित हैं। श्री रामचन्द्रजी के रूप, गुण, शील और स्वभाव को देख-सुनकर राजा दशरथजी बहुत ही आनन्दित होते हैं॥4॥