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01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

राम रूपु भूपति भगति ब्याहु उछाहु अनन्दु।
जात सराहत मनहिं मन मुदित गाधिकुलचन्दु॥360॥

मूल

राम रूपु भूपति भगति ब्याहु उछाहु अनन्दु।
जात सराहत मनहिं मन मुदित गाधिकुलचन्दु॥360॥

भावार्थ

गाधिकुल के चन्द्रमा विश्वामित्रजी बडे हर्ष के साथ श्री रामचन्द्रजी के रूप, राजा दशरथजी की भक्ति, (चारों भाइयों के) विवाह और (सबके) उत्साह और आनन्द को मन ही मन सराहते जाते हैं॥360॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

बामदेव रघुकुल गुर ग्यानी। बहुरि गाधिसुत कथा बखानी॥
सुनि मुनि सुजसु मनहिं मन राऊ। बरनत आपन पुन्य प्रभाऊ॥1॥

मूल

बामदेव रघुकुल गुर ग्यानी। बहुरि गाधिसुत कथा बखानी॥
सुनि मुनि सुजसु मनहिं मन राऊ। बरनत आपन पुन्य प्रभाऊ॥1॥

भावार्थ

वामदेवजी और रघुकुल के गुरु ज्ञानी वशिष्ठजी ने फिर विश्वामित्रजी की कथा बखानकर कही। मुनि का सुन्दर यश सुनकर राजा मन ही मन अपने पुण्यों के प्रभाव का बखान करने लगे॥1॥

बहुरे लोग रजायसु भयऊ। सुतन्ह समेत नृपति गृहँ गयऊ॥
जहँ तहँ राम ब्याहु सबु गावा। सुजसु पुनीत लोक तिहुँ छावा॥2॥

मूल

बहुरे लोग रजायसु भयऊ। सुतन्ह समेत नृपति गृहँ गयऊ॥
जहँ तहँ राम ब्याहु सबु गावा। सुजसु पुनीत लोक तिहुँ छावा॥2॥

भावार्थ

आज्ञा हुई तब सब लोग (अपने-अपने घरों को) लौटे। राजा दशरथजी भी पुत्रों सहित महल में गए। जहाँ-तहाँ सब श्री रामचन्द्रजी के विवाह की गाथाएँ गा रहे हैं। श्री रामचन्द्रजी का पवित्र सुयश तीनों लोकों में छा गया॥2॥

आए ब्याहि रामु घर जब तें। बसइ अनन्द अवध सब तब तें॥
प्रभु बिबाहँ जस भयउ उछाहू। सकहिं न बरनि गिरा अहिनाहू॥3॥

मूल

आए ब्याहि रामु घर जब तें। बसइ अनन्द अवध सब तब तें॥
प्रभु बिबाहँ जस भयउ उछाहू। सकहिं न बरनि गिरा अहिनाहू॥3॥

भावार्थ

जब से श्री रामचन्द्रजी विवाह करके घर आए, तब से सब प्रकार का आनन्द अयोध्या में आकर बसने लगा। प्रभु के विवाह में आनन्द-उत्साह हुआ, उसे सरस्वती और सर्पों के राजा शेषजी भी नहीं कह सकते॥3॥

कबिकुल जीवनु पावन जानी। राम सीय जसु मङ्गल खानी॥
तेहि ते मैं कछु कहा बखानी। करन पुनीत हेतु निज बानी॥4॥

मूल

कबिकुल जीवनु पावन जानी। राम सीय जसु मङ्गल खानी॥
तेहि ते मैं कछु कहा बखानी। करन पुनीत हेतु निज बानी॥4॥

भावार्थ

श्री सीतारामजी के यश को कविकुल के जीवन को पवित्र करने वाला और मङ्गलों की खान जानकर, इससे मैन्ने अपनी वाणी को पवित्र करने के लिए कुछ (थोडा सा) बखानकर कहा है॥4॥

03 छन्द

विश्वास-प्रस्तुतिः

निज गिरा पावनि करन कारन राम जसु तुलसीं कह्यो।
रघुबीर चरित अपार बारिधि पारु कबि कौनें लह्यो॥
उपबीत ब्याह उछाह मङ्गल सुनि जे सादर गावहीं।
बैदेहि राम प्रसाद ते जन सर्बदा सुखु पावहीं॥

मूल

निज गिरा पावनि करन कारन राम जसु तुलसीं कह्यो।
रघुबीर चरित अपार बारिधि पारु कबि कौनें लह्यो॥
उपबीत ब्याह उछाह मङ्गल सुनि जे सादर गावहीं।
बैदेहि राम प्रसाद ते जन सर्बदा सुखु पावहीं॥

भावार्थ

अपनी वाणी को पवित्र करने के लिए तुलसी ने राम का यश कहा है।

(नहीं तो) श्री रघुनाथजी का चरित्र अपार समुद्र है, किस कवि ने उसका पार पाया है? जो लोग यज्ञोपवीत और विवाह के मङ्गलमय उत्सव का वर्णन आदर के साथ सुनकर गावेङ्गे, वे लोग श्री जानकीजी और श्री रामजी की कृपा से सदा सुख पावेङ्गे।