01 दोहा
विश्वास-प्रस्तुतिः
मङ्गल मोद उछाह नित जाहिं दिवस एहि भाँति।
उमगी अवध अनन्द भरि अधिक अधिक अधिकाति॥359॥
मूल
मङ्गल मोद उछाह नित जाहिं दिवस एहि भाँति।
उमगी अवध अनन्द भरि अधिक अधिक अधिकाति॥359॥
भावार्थ
नित्य ही मङ्गल, आनन्द और उत्सव होते हैं, इस तरह आनन्द में दिन बीतते जाते हैं। अयोध्या आनन्द से भरकर उमड पडी, आनन्द की अधिकता अधिक-अधिक बढती ही जा रही है॥359॥
02 चौपाई
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुदिन सोधि कल कङ्कन छोरे। मङ्गल मोद बिनोद न थोरे॥
नित नव सुखु सुर देखि सिहाहीं। अवध जन्म जाचहिं बिधि पाहीं॥1॥
मूल
सुदिन सोधि कल कङ्कन छोरे। मङ्गल मोद बिनोद न थोरे॥
नित नव सुखु सुर देखि सिहाहीं। अवध जन्म जाचहिं बिधि पाहीं॥1॥
भावार्थ
अच्छा दिन (शुभ मुहूर्त) शोधकर सुन्दर कङ्कण खोले गए। मङ्गल, आनन्द और विनोद कुछ कम नहीं हुए (अर्थात बहुत हुए)। इस प्रकार नित्य नए सुख को देखकर देवता सिहाते हैं और अयोध्या में जन्म पाने के लिए ब्रह्माजी से याचना करते हैं॥1॥
बिस्वामित्रु चलन नित चहहीं। राम सप्रेम बिनय बस रहहीं॥
दिन दिन सयगुन भूपति भाऊ। देखि सराह महामुनिराऊ॥2॥
मूल
बिस्वामित्रु चलन नित चहहीं। राम सप्रेम बिनय बस रहहीं॥
दिन दिन सयगुन भूपति भाऊ। देखि सराह महामुनिराऊ॥2॥
भावार्थ
विश्वामित्रजी नित्य ही चलना (अपने आश्रम जाना) चाहते हैं, पर रामचन्द्रजी के स्नेह और विनयवश रह जाते हैं। दिनोन्दिन राजा का सौ गुना भाव (प्रेम) देखकर महामुनिराज विश्वामित्रजी उनकी सराहना करते हैं॥2॥
मागत बिदा राउ अनुरागे। सुतन्ह समेत ठाढ भे आगे॥
नाथ सकल सम्पदा तुम्हारी। मैं सेवकु समेत सुत नारी॥3॥
मूल
मागत बिदा राउ अनुरागे। सुतन्ह समेत ठाढ भे आगे॥
नाथ सकल सम्पदा तुम्हारी। मैं सेवकु समेत सुत नारी॥3॥
भावार्थ
अन्त में जब विश्वामित्रजी ने विदा माँगी, तब राजा प्रेममग्न हो गए और पुत्रों सहित आगे खडे हो गए। (वे बोले-) हे नाथ! यह सारी सम्पदा आपकी है। मैं तो स्त्री-पुत्रों सहित आपका सेवक हूँ॥3॥
करब सदा लरिकन्ह पर छोहू। दरसनु देत रहब मुनि मोहू॥
अस कहि राउ सहित सुत रानी। परेउ चरन मुख आव न बानी॥4॥
मूल
करब सदा लरिकन्ह पर छोहू। दरसनु देत रहब मुनि मोहू॥
अस कहि राउ सहित सुत रानी। परेउ चरन मुख आव न बानी॥4॥
भावार्थ
हे मुनि! लडकों पर सदा स्नेह करते रहिएगा और मुझे भी दर्शन देते रहिएगा। ऐसा कहकर पुत्रों और रानियों सहित राजा दशरथजी विश्वामित्रजी के चरणों पर गिर पडे, (प्रेमविह्वल हो जाने के कारण) उनके मुँह से बात नहीं निकलती॥4॥
दीन्हि असीस बिप्र बहु भाँति। चले न प्रीति रीति कहि जाती॥
रामु सप्रेम सङ्ग सब भाई। आयसु पाइ फिरे पहुँचाई॥5॥
मूल
दीन्हि असीस बिप्र बहु भाँति। चले न प्रीति रीति कहि जाती॥
रामु सप्रेम सङ्ग सब भाई। आयसु पाइ फिरे पहुँचाई॥5॥
भावार्थ
ब्राह्मण विश्वमित्रजी ने बहुत प्रकार से आशीर्वाद दिए और वे चल पडे।
प्रीति की रीति कही नहीं जीती। सब भाइयों को साथ लेकर श्री रामजी प्रेम के साथ उन्हें पहुँचाकर और आज्ञा पाकर लौटे॥5॥