01 दोहा
लरिका श्रमित उनीद बस सयन करावहु जाइ।
अस कहि गे बिश्रामगृहँ राम चरन चितु लाइ॥355॥
मूल
लरिका श्रमित उनीद बस सयन करावहु जाइ।
अस कहि गे बिश्रामगृहँ राम चरन चितु लाइ॥355॥
भावार्थ
लडके थके हुए नीन्द के वश हो रहे हैं, इन्हें ले जाकर शयन कराओ। ऐसा कहकर राजा श्री रामचन्द्रजी के चरणों में मन लगाकर विश्राम भवन में चले गए॥355॥
02 चौपाई
विश्वास-प्रस्तुतिः
भूप बचन सुनि सहज सुहाए। जरित कनक मनि पलँग डसाए॥
सुभग सुरभि पय फेन समाना। कोमल कलित सुपेतीं नाना॥1॥
मूल
भूप बचन सुनि सहज सुहाए। जरित कनक मनि पलँग डसाए॥
सुभग सुरभि पय फेन समाना। कोमल कलित सुपेतीं नाना॥1॥
भावार्थ
राजा के स्वाभव से ही सुन्दर वचन सुनकर (रानियों ने) मणियों से जडे सुवर्ण के पलँग बिछवाए। (गद्दों पर) गो के फेन के समान सुन्दर एवं कोमल अनेकों सफेद चादरें बिछाईं॥1॥
उपबरहन बर बरनि न जाहीं। स्रग सुगन्ध मनिमन्दिर माहीं॥
रतनदीप सुठि चारु चँदोवा। कहत न बनइ जान जेहिं जोवा॥2॥
मूल
उपबरहन बर बरनि न जाहीं। स्रग सुगन्ध मनिमन्दिर माहीं॥
रतनदीप सुठि चारु चँदोवा। कहत न बनइ जान जेहिं जोवा॥2॥
भावार्थ
सुन्दर तकियों का वर्णन नहीं किया जा सकता। मणियों के मन्दिर में फूलों की मालाएँ और सुगन्ध द्रव्य सजे हैं। सुन्दर रत्नों के दीपकों और सुन्दर चँदोवे की शोभा कहते नहीं बनती। जिसने उन्हें देखा हो, वही जान सकता है॥2॥
सेज रुचिर रचि रामु उठाए। प्रेम समेत पलँग पौढाए॥
अग्या पुनि पुनि भाइन्ह दीन्ही। निज निज सेज सयन तिन्ह कीन्ही॥3॥
मूल
सेज रुचिर रचि रामु उठाए। प्रेम समेत पलँग पौढाए॥
अग्या पुनि पुनि भाइन्ह दीन्ही। निज निज सेज सयन तिन्ह कीन्ही॥3॥
भावार्थ
इस प्रकार सुन्दर शय्या सजाकर (माताओं ने) श्री रामचन्द्रजी को उठाया और प्रेम सहित पलँग पर पौढाया। श्री रामजी ने बार-बार भाइयों को आज्ञा दी। तब वे भी अपनी-अपनी शय्याओं पर सो गए॥3॥
देखि स्याम मृदु मञ्जुल गाता। कहहिं सप्रेम बचन सब माता॥
मारग जात भयावनि भारी। केहि बिधि तात ताडका मारी॥4॥
मूल
देखि स्याम मृदु मञ्जुल गाता। कहहिं सप्रेम बचन सब माता॥
मारग जात भयावनि भारी। केहि बिधि तात ताडका मारी॥4॥
भावार्थ
श्री रामजी के साँवले सुन्दर कोमल अँगों को देखकर सब माताएँ प्रेम सहित वचन कह रही हैं- हे तात! मार्ग में जाते हुए तुमने बडी भयावनी ताडका राक्षसी को किस प्रकार से मारा?॥4॥