349

01 दोहा

निगम नीति कुल रीति करि अरघ पाँवडे देत।
बधुन्ह सहित सुत परिछि सब चलीं लवाइ निकेत॥349॥

मूल

निगम नीति कुल रीति करि अरघ पाँवडे देत।
बधुन्ह सहित सुत परिछि सब चलीं लवाइ निकेत॥349॥

भावार्थ

वेद की विधि और कुल की रीति करके अर्घ्य-पाँवडे देती हुई बहुओं समेत सब पुत्रों को परछन करके माताएँ महल में लिवा चलीं॥349॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

चारि सिङ्घासन सहज सुहाए। जनु मनोज निज हाथ बनाए॥
तिन्ह पर कुअँरि कुअँर बैठारे। सादर पाय पुनीत पखारे॥1॥

मूल

चारि सिङ्घासन सहज सुहाए। जनु मनोज निज हाथ बनाए॥
तिन्ह पर कुअँरि कुअँर बैठारे। सादर पाय पुनीत पखारे॥1॥

भावार्थ

स्वाभाविक ही सुन्दर चार सिंहासन थे, जो मानो कामदेव ने ही अपने हाथ से बनाए थे। उन पर माताओं ने राजकुमारियों और राजकुमारों को बैठाया और आदर के साथ उनके पवित्र चरण धोए॥1॥

धूप दीप नैबेद बेद बिधि। पूजे बर दुलहिनि मङ्गल निधि॥
बारहिं बार आरती करहीं। ब्यजन चारु चामर सिर ढरहीं॥2॥

मूल

धूप दीप नैबेद बेद बिधि। पूजे बर दुलहिनि मङ्गल निधि॥
बारहिं बार आरती करहीं। ब्यजन चारु चामर सिर ढरहीं॥2॥

भावार्थ

फिर वेद की विधि के अनुसार मङ्गल के निधान दूलह की दुलहिनों की धूप, दीप और नैवेद्य आदि के द्वारा पूजा की। माताएँ बारम्बार आरती कर रही हैं और वर-वधुओं के सिरों पर सुन्दर पङ्खे तथा चँवर ढल रहे हैं॥2॥

बस्तु अनेक निछावरि होहीं। भरीं प्रमोद मातु सब सोहीं॥
पावा परम तत्व जनु जोगीं। अमृतु लहेउ जनु सन्तत रोगीं॥3॥

मूल

बस्तु अनेक निछावरि होहीं। भरीं प्रमोद मातु सब सोहीं॥
पावा परम तत्व जनु जोगीं। अमृतु लहेउ जनु सन्तत रोगीं॥3॥

भावार्थ

अनेकों वस्तुएँ निछावर हो रही हैं, सभी माताएँ आनन्द से भरी हुई ऐसी सुशोभित हो रही हैं मानो योगी ने परम तत्व को प्राप्त कर लिया। सदा के रोगी ने मानो अमृत पा लिया॥3॥

जनम रङ्क जनु पारस पावा। अन्धहि लोचन लाभु सुहावा॥
मूक बदन जनु सारद छाई। मानहुँ समर सूर जय पाई॥4॥

मूल

जनम रङ्क जनु पारस पावा। अन्धहि लोचन लाभु सुहावा॥
मूक बदन जनु सारद छाई। मानहुँ समर सूर जय पाई॥4॥

भावार्थ

जन्म का दरिद्री मानो पारस पा गया। अन्धे को सुन्दर नेत्रों का लाभ हुआ। गूँगे के मुख में मानो सरस्वती आ विराजीं और शूरवीर ने मानो युद्ध में विजय पा ली॥4॥