01 दोहा
विश्वास-प्रस्तुतिः
होहिं सगुन बरषहिं सुमन सुर दुन्दभीं बजाइ।
बिबुध बधू नाचहिं मुदित मञ्जुल मङ्गल गाइ॥347॥
मूल
होहिं सगुन बरषहिं सुमन सुर दुन्दभीं बजाइ।
बिबुध बधू नाचहिं मुदित मञ्जुल मङ्गल गाइ॥347॥
भावार्थ
शकुन हो रहे हैं, देवता दुन्दुभी बजा-बजाकर फूल बरसा रहे हैं। देवताओं की स्त्रियाँ आनन्दित होकर सुन्दर मङ्गल गीत गा-गाकर नाच रही हैं॥347॥
02 चौपाई
विश्वास-प्रस्तुतिः
मागध सूत बन्दि नट नागर। गावहिं जसु तिहु लोक उजागर॥
जय धुनि बिमल बेद बर बानी। दस दिसि सुनिअ सुमङ्गल सानी॥1॥
मूल
मागध सूत बन्दि नट नागर। गावहिं जसु तिहु लोक उजागर॥
जय धुनि बिमल बेद बर बानी। दस दिसि सुनिअ सुमङ्गल सानी॥1॥
भावार्थ
मागध, सूत, भाट और चतुर नट तीनों लोकों के उजागर (सबको प्रकाश देने वाले परम प्रकाश स्वरूप) श्री रामचन्द्रजी का यश गा रहे हैं। जय ध्वनि तथा वेद की निर्मल श्रेष्ठ वाणी सुन्दर मङ्गल से सनी हुई दसों दिशाओं में सुनाई पड रही है॥1॥
बिपुल बाज ने बाजन लागे। नभ सुर नगर लोग अनुरागे॥
बने बराती बरनि न जाहीं। महा मुदित मन सुख न समाहीं॥2॥
मूल
बिपुल बाज ने बाजन लागे। नभ सुर नगर लोग अनुरागे॥
बने बराती बरनि न जाहीं। महा मुदित मन सुख न समाहीं॥2॥
भावार्थ
बहुत से बाजे बजने लगे। आकाश में देवता और नगर में लोग सब प्रेम में मग्न हैं। बाराती ऐसे बने-ठने हैं कि उनका वर्णन नहीं हो सकता। परम आनन्दित हैं, सुख उनके मन में समाता नहीं है॥2॥
पुरबासिन्ह तब राय जोहारे। देखत रामहि भए सुखारे॥
करहिं निछावरि मनिगन चीरा। बारि बिलोचन पुलक सरीरा॥3॥
मूल
पुरबासिन्ह तब राय जोहारे। देखत रामहि भए सुखारे॥
करहिं निछावरि मनिगन चीरा। बारि बिलोचन पुलक सरीरा॥3॥
भावार्थ
तब अयोध्यावसियों ने राजा को जोहार (वन्दना) की। श्री रामचन्द्रजी को देखते ही वे सुखी हो गए। सब मणियाँ और वस्त्र निछावर कर रहे हैं। नेत्रों में (प्रेमाश्रुओं का) जल भरा है और शरीर पुलकित हैं॥3॥।
आरति करहिं मुदित पुर नारी। हरषहिं निरखि कुअँर बर चारी॥
सिबिका सुभग ओहार उघारी। देखि दुलहिनिन्ह होहिं सुखारी॥4॥
मूल
आरति करहिं मुदित पुर नारी। हरषहिं निरखि कुअँर बर चारी॥
सिबिका सुभग ओहार उघारी। देखि दुलहिनिन्ह होहिं सुखारी॥4॥
भावार्थ
नगर की स्त्रियाँ आनन्दित होकर आरती कर रही हैं और सुन्दर चारों कुमारों को देखकर हर्षित हो रही हैं। पालकियों के सुन्दर परदे हटा-हटाकर वे दुलहिनों को देखकर सुखी होती हैं॥4॥