01 दोहा
कनक थार भरि मङ्गलन्हि कमल करन्हि लिएँ मात।
चलीं मुदित परिछनि करन पुलक पल्लवित गात॥346॥
मूल
कनक थार भरि मङ्गलन्हि कमल करन्हि लिएँ मात।
चलीं मुदित परिछनि करन पुलक पल्लवित गात॥346॥
भावार्थ
सोने के थालों को माङ्गलिक वस्तुओं से भरकर अपने कमल के समान (कोमल) हाथों में लिए हुए माताएँ आनन्दित होकर परछन करने चलीं। उनके शरीर पुलकावली से छा गए हैं॥346॥
02 चौपाई
विश्वास-प्रस्तुतिः
धूप धूम नभु मेचक भयऊ। सावन घन घमण्डु जनु ठयऊ॥
सुरतरु सुमन माल सुर बरषहिं। मनहुँ बलाक अवलि मनु करषहिं॥1॥
मूल
धूप धूम नभु मेचक भयऊ। सावन घन घमण्डु जनु ठयऊ॥
सुरतरु सुमन माल सुर बरषहिं। मनहुँ बलाक अवलि मनु करषहिं॥1॥
भावार्थ
धूप के धुएँ से आकाश ऐसा काला हो गया है मानो सावन के बादल घुमड-घुमडकर छा गए हों। देवता कल्पवृक्ष के फूलों की मालाएँ बरसा रहे हैं। वे ऐसी लगती हैं, मानो बगुलों की पाँति मन को (अपनी ओर) खीञ्च रही हो॥1॥
मञ्जुल मनिमय बन्दनिवारे। मनहुँ पाकरिपु चाप सँवारे॥
प्रगटहिं दुरहिं अटन्ह पर भामिनि। चारु चपल जनु दमकहिं दामिनि॥2॥
मूल
मञ्जुल मनिमय बन्दनिवारे। मनहुँ पाकरिपु चाप सँवारे॥
प्रगटहिं दुरहिं अटन्ह पर भामिनि। चारु चपल जनु दमकहिं दामिनि॥2॥
भावार्थ
सुन्दर मणियों से बने बन्दनवार ऐसे मालूम होते हैं, मानो इन्द्रधनुष सजाए हों। अटारियों पर सुन्दर और चपल स्त्रियाँ प्रकट होती और छिप जाती हैं (आती-जाती हैं), वे ऐसी जान पडती हैं, मानो बिजलियाँ चमक रही हों॥2॥
दुन्दुभि धुनि घन गरजनि घोरा। जाचक चातक दादुर मोरा॥
सुर सुगन्ध सुचि बरषहिं बारी। सुखी सकल ससि पुर नर नारी॥3॥
मूल
दुन्दुभि धुनि घन गरजनि घोरा। जाचक चातक दादुर मोरा॥
सुर सुगन्ध सुचि बरषहिं बारी। सुखी सकल ससि पुर नर नारी॥3॥
भावार्थ
नगाडों की ध्वनि मानो बादलों की घोर गर्जना है। याचकगण पपीहे, मेण्ढक और मोर हैं। देवता पवित्र सुगन्ध रूपी जल बरसा रहे हैं, जिससे खेती के समान नगर के सब स्त्री-पुरुष सुखी हो रहे हैं॥3॥
समउ जानि गुर आयसु दीन्हा। पुर प्रबेसु रघुकुलमनि कीन्हा॥
सुमिरि सम्भु गिरिजा गनराजा। मुदित महीपति सहित समाजा॥4॥
मूल
समउ जानि गुर आयसु दीन्हा। पुर प्रबेसु रघुकुलमनि कीन्हा॥
सुमिरि सम्भु गिरिजा गनराजा। मुदित महीपति सहित समाजा॥4॥
भावार्थ
(प्रवेश का) समय जानकर गुरु वशिष्ठजी ने आज्ञा दी। तब रघुकुलमणि महाराज दशरथजी ने शिवजी, पार्वतीजी और गणेशजी का स्मरण करके समाज सहित आनन्दित होकर नगर में प्रवेश किया॥4॥