01 दोहा
विश्वास-प्रस्तुतिः
मिले लखन रिपुसूदनहि दीन्हि असीस महीस।
भए परस्पर प्रेमबस फिरि फिरि नावहिं सीस॥३४२॥
मूल
मिले लखन रिपुसूदनहि दीन्हि असीस महीस।
भए परस्पर प्रेमबस फिरि फिरि नावहिं सीस॥३४२॥
भावार्थ
फिर राजा ने लक्ष्मण और शत्रुघ्न से मिलकर उन्हें आशीर्वाद दिया। वे परस्पर प्रेम के वश होकर बार-बार आपस में सिर नवाने लगे॥342॥
02 चौपाई
विश्वास-प्रस्तुतिः
बार बार करि बिनय बड़ाई। रघुपति चले संग सब भाई॥ जनक गहे कौसिक पद जाई। चरन रेनु सिर नयनन्ह लाई॥1॥
मूल
बार बार करि बिनय बड़ाई। रघुपति चले संग सब भाई॥ जनक गहे कौसिक पद जाई। चरन रेनु सिर नयनन्ह लाई॥1॥
भावार्थ
जनकजी की बार बार विनती और बडाई करके श्री रघुनाथजी सब भाइयों के साथ चले। जनकजी ने जाकर विश्वामित्रजी के चरण पकड लिए और उनके चरणों की रज को सिर और नेत्रों में लगाया॥1॥
सुनु मुनीस बर दरसन तोरें। अगमु न कछु प्रतीति मन मोरें॥ जो सुखु सुजसु लोकपति चहहीं। करत मनोरथ सकुचत अहहीं॥2॥
मूल
सुनु मुनीस बर दरसन तोरें। अगमु न कछु प्रतीति मन मोरें॥ जो सुखु सुजसु लोकपति चहहीं। करत मनोरथ सकुचत अहहीं॥2॥
भावार्थ
(उन्होंने कहा-) हे मुनीश्वर! सुनिए, आपके सुन्दर दर्शन से कुछ भी दुर्लभ नहीं है, मेरे मन में ऐसा विश्वास है, जो सुख और सुयश लोकपाल चाहते हैं, परन्तु (असम्भव समझकर) मनोरथ करते हुए सकुचाते हैं।॥2॥
सो सुखु सुजसु सुलभ मोहि स्वामी। सब सिधि तव दरसन अनुगामी॥
कीन्हि बिनय पुनि पुनि सिरु नाई। फिरे महीसु आसिषा पाई॥3॥
मूल
सो सुखु सुजसु सुलभ मोहि स्वामी। सब सिधि तव दरसन अनुगामी॥
कीन्हि बिनय पुनि पुनि सिरु नाई। फिरे महीसु आसिषा पाई॥3॥
भावार्थ
हे स्वामि! वही सुख और सुयश मुझे सुलभ हो गया, सारी सिद्धियाँ आपके दर्शनों की अनुगामिनी अर्थात् पीछे पीछे चलने वाली हैं। इस प्रकार बार बार विनती की और सिर नवाकर तथा उनसे आशीर्वाद पाकर राजा जनक लौटे॥3॥
चली बरात निसान बजाई। मुदित छोट बड़ सब समुदाई॥
रामहि निरखि ग्राम नर नारी। पाइ नयन फलु होहिं सुखारी॥4॥
मूल
चली बरात निसान बजाई। मुदित छोट बड़ सब समुदाई॥
रामहि निरखि ग्राम नर नारी। पाइ नयन फलु होहिं सुखारी॥4॥
भावार्थ
डङ्का बजाकर बारात चली। छोटे-बडे सभी समुदाय प्रसन्न हैं। (रास्ते के) गाँव के स्त्री-पुरुष श्री रामचन्द्रजी को देखकर नेत्रों का फल पाकर सुखी होते हैं॥4॥