341

01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

नयन बिषय मो कहुँ भयउ सो समस्त सुख मूल।
सबइ लाभु जग जीव कहँ भएँ ईसु अनुकुल॥३४१॥

मूल

नयन बिषय मो कहुँ भयउ सो समस्त सुख मूल।
सबइ लाभु जग जीव कहँ भएँ ईसु अनुकुल॥३४१॥

भावार्थ

वे ही समस्त सुखों के मूल (आप) मेरे नेत्रों के विषय हुए। ईश्वर के अनुकूल होने पर जगत में जीव को सब लाभ ही लाभ है॥341॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

सबहि भाँति मोहि दीन्हि बड़ाई। निज जन जानि लीन्ह अपनाई॥
होहिं सहस दस सारद सेषा। करहिं कलप कोटिक भरि लेखा॥1॥

मूल

सबहि भाँति मोहि दीन्हि बड़ाई। निज जन जानि लीन्ह अपनाई॥
होहिं सहस दस सारद सेषा। करहिं कलप कोटिक भरि लेखा॥1॥

भावार्थ

आपने मुझे सभी प्रकार से बडाई दी और अपना जन जानकर अना लिया। यदि दस हजार सरस्वती और शेष हों और करोडों कल्पों तक गणना करते हैं॥1॥

मोर भाग्य राउर गुन गाथा। कहि न सिराहिं सुनहु रघुनाथा॥
मै कछु कहउँ एक बल मोरें। तुम्ह रीझहु सनेह सुठि थोरें॥2

मूल

मोर भाग्य राउर गुन गाथा। कहि न सिराहिं सुनहु रघुनाथा॥
मै कछु कहउँ एक बल मोरें। तुम्ह रीझहु सनेह सुठि थोरें॥2

भावार्थ

तो भी हे रघुनाथ! मेरे सौभाग्य और आपके गुणों की कथा कहकर समाप्त नहीं की जा सकती। मैं जो कुछ कह रहा हूँ, वह अपने इस एक ही बल पर कि आप अत्यन्त थोडे प्रेम से प्रसन्न हो जाते हैं॥2॥

बार बार मागउँ कर जोरें। मनु परिहरै चरन जनि भोरें॥
सुनि बर बचन प्रेम जनु पोषे। पूरनकाम रामु परितोषे॥3॥

मूल

बार बार मागउँ कर जोरें। मनु परिहरै चरन जनि भोरें॥
सुनि बर बचन प्रेम जनु पोषे। पूरनकाम रामु परितोषे॥3॥

भावार्थ

मैं बार बार हाथ जोडकर यह माँगता हूँ कि मेरा मन भूलकर भी आपके चरणों को न छोडे। जनकजी के श्रेष्ठ वचनों को सुनकर, जो मानो प्रेम से पुष्ट किए हुए थे, पूर्ण काम श्री रामचन्द्र जी सन्तुष्ट हुए॥3॥

करि बर बिनय ससुर सनमाने। पितु कौसिक बसिष्ठ सम जाने॥
बिनती बहुरि भरत सन कीन्ही। मिलि सप्रेमु पुनि आसिष दीन्ही॥4॥

मूल

करि बर बिनय ससुर सनमाने। पितु कौसिक बसिष्ठ सम जाने॥
बिनती बहुरि भरत सन कीन्ही। मिलि सप्रेमु पुनि आसिष दीन्ही॥4॥

भावार्थ

उन्होंने सुन्दर विनती करके पिता दशरथजी, गुरु विश्वामित्र और कुलगुरु वशिष्ठजी के समान जानकर ससुर जनकजी का सम्मान किया। फिर जनकजी ने भरतजी से विनती की और प्रेम के साथ मिलकर उन्हें आशीर्वाद दिया॥4॥