340

01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

कोसलपति समधी सजन सनमाने सब भाँति।
मिलनि परसपर बिनय अति प्रीति न हृदयँ समाति॥३४०॥

मूल

कोसलपति समधी सजन सनमाने सब भाँति।
मिलनि परसपर बिनय अति प्रीति न हृदयँ समाति॥३४०॥

भावार्थ

कोशलनाथ दशरथजी ने अपने स्वजन समधी का सब प्रकार से सम्मान किया। उनके आपस के मिलने में अत्यन्त विनय था और इतनी प्रीति थी जो हृदय में समाती न थी॥340॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

मुनि मंडलिहि जनक सिरु नावा। आसिरबादु सबहि सन पावा॥
सादर पुनि भेंटे जामाता। रूप सील गुन निधि सब भ्राता॥1॥

मूल

मुनि मंडलिहि जनक सिरु नावा। आसिरबादु सबहि सन पावा॥
सादर पुनि भेंटे जामाता। रूप सील गुन निधि सब भ्राता॥1॥

भावार्थ

जनक जी ने मुनि मण्डली को सिर नवाया और सभी से आशीर्वाद पाया।

फिर आदर के साथ वे रूप, शील और गुणों के निधान सब भाइयों से, अपने दामादों से मिले॥1॥

जोरि पंकरुह पानि सुहाए। बोले बचन प्रेम जनु जाए॥
राम करौ केहि भाँति प्रसंसा। मुनि महेस मन मानस हंसा॥2॥

मूल

फिर आदर के साथ वे रूप, शील और गुणों के निधान सब भाइयों से, अपने दामादों से मिले॥1॥

जोरि पंकरुह पानि सुहाए। बोले बचन प्रेम जनु जाए॥
राम करौ केहि भाँति प्रसंसा। मुनि महेस मन मानस हंसा॥2॥

भावार्थ

सुन्दर कमल के समान हाथों को जोडकर वचन बोले जो मानो प्रेम से ही उत्पन्न हुए(स्नेह से पुत्र) हों। हे रामजी! आपकी प्रशंसा मैं किस प्रकार करूँ! आप मुनि और शिवजी के मन रूपी मानसरोवर के हंस हैं॥2॥

करहिं जोग जोगी जेहि लागी। कोहु मोहु ममता मदु त्यागी॥
ब्यापकु ब्रह्मु अलखु अबिनासी। चिदानंदु निरगुन गुनरासी॥3॥

मूल

करहिं जोग जोगी जेहि लागी। कोहु मोहु ममता मदु त्यागी॥
ब्यापकु ब्रह्मु अलखु अबिनासी। चिदानंदु निरगुन गुनरासी॥3॥

भावार्थ

योगी लोग जिनके लिए क्रोध, मोह, ममत्व और घमण्ड त्यागकर योग करते हैं। जो सब में स्थित, परब्रह्म, अप्रकट, नाशरहित, चैतन्य, आनन्दस्वरूप निर्गुण एवम् गुणों की राशि हैं॥3॥

मन समेत जेहि जान न बानी। तरकि न सकहिं सकल अनुमानी॥
महिमा निगमु नेति कहि कहई। जो तिहुँ काल एकरस रहई॥4॥

मूल

मन समेत जेहि जान न बानी। तरकि न सकहिं सकल अनुमानी॥
महिमा निगमु नेति कहि कहई। जो तिहुँ काल एकरस रहई॥4॥

भावार्थ

मन के सहित जिनको वाणी नहीं जानती और समस्त अनुमान करने वाले जिनका तर्कना नहीं कर सकते, जिनकी महिमा को वेद नेति कहकर वर्णन करता है और जो (सच्चिदानन्द) तीनों कालों में एकरस (सर्वदा और सर्वथा निर्विकार) रहते हैं॥4॥