339

01 दोहा

सुर प्रसून बरषहि हरषि करहिं अपछरा गान। चले अवधपति अवधपुर मुदित बजाइ निसान॥३३९॥

मूल

सुर प्रसून बरषहि हरषि करहिं अपछरा गान। चले अवधपति अवधपुर मुदित बजाइ निसान॥३३९॥

भावार्थ

ः-देवता प्रसन्न होकर पुष्पवर्षा करते हैं और अप्सराएँ गान करती हैं। अवधनरेश प्रसन्नतापूर्वक (जनकपुर से) नगाडे बजा कर अयोध्यापुरी को चले॥339॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

नृप करि बिनय महाजन फेरे। सादर सकल मागने टेरे॥
भूषन बसन बाजि गज दीन्हे। प्रेम पोषि ठाढ़े सब कीन्हे॥1॥

मूल

नृप करि बिनय महाजन फेरे। सादर सकल मागने टेरे॥
भूषन बसन बाजि गज दीन्हे। प्रेम पोषि ठाढ़े सब कीन्हे॥1॥

भावार्थ

राजा दशरथजी नें बिनती कर के प्रतिष्ठितजनों को लौटाया और सम्पूर्ण मंगनों को बुलवाया। आभूषण, वस्त्र, हाथी, घोडे दिए और प्रेम से सब को सन्तुष्ट कर के खडा किया॥1॥

बार बार बिरिदावलि भाषी। फिरे सकल रामहि उर राखी॥
बहुरि बहुरि कोसलपति कहहीं। जनकु प्रेमबस फिरै न चहहीं॥2॥

मूल

बार बार बिरिदावलि भाषी। फिरे सकल रामहि उर राखी॥
बहुरि बहुरि कोसलपति कहहीं। जनकु प्रेमबस फिरै न चहहीं॥2॥

भावार्थ

बारम्बार नामवरी (वंश की बडाई) बखान कर सब रामचन्द्रजी को हृदय में रख कर फिरे। अयोध्यानरेश फिर फिर कहते हैं परन्तु प्रेम के अधीन हुए जनकजी नहीं चाहते हैं।

पुनि कह भूपति बचन सुहाए। फिरिअ महीस दूरि बड़ि आए॥
राउ बहोरि उतरि भए ठाढ़े। प्रेम प्रबाह बिलोचन बाढ़े॥3॥

मूल

पुनि कह भूपति बचन सुहाए। फिरिअ महीस दूरि बड़ि आए॥
राउ बहोरि उतरि भए ठाढ़े। प्रेम प्रबाह बिलोचन बाढ़े॥3॥

भावार्थ

दशरथजी ने फिर सुहावने वचन कहे- हे राजन्! बहुत दूर आ गए, अब लौटिए। फिर राजा दशरथजी रथ से उतरकर खडे हो गए। उनके नेत्रों में प्रेम प्रवाह बढ आया (प्रेमाश्रुओं की धारा बह चली)॥3॥

तब बिदेह बोले कर जोरी। बचन सनेह सुधाँ जनु बोरी॥
करौ कवन बिधि बिनय बनाई। महाराज मोहि दीन्हि बड़ाई॥4॥

मूल

तब बिदेह बोले कर जोरी। बचन सनेह सुधाँ जनु बोरी॥
करौ कवन बिधि बिनय बनाई। महाराज मोहि दीन्हि बड़ाई॥4॥

भावार्थ

तब जनकजी हाथ जोडकर मानो स्नेह रूपी अमृत में डुबोकर वचन बोले- मैं किस तरह (किन शब्दों में) विनती करूँ। हे महाराज! आपने मुझे बडी बडाई दी है॥4॥