01 दोहा
प्रेमबिबस नर नारि सब सखिन्ह सहित रनिवासु।
मानहुँ कीन्ह बिदेहपुर करुनाँ बिरहँ निवासु॥337॥
मूल
प्रेमबिबस नर नारि सब सखिन्ह सहित रनिवासु।
मानहुँ कीन्ह बिदेहपुर करुनाँ बिरहँ निवासु॥337॥
भावार्थ
सब स्त्री-पुरुष और सखियों सहित सारा रनिवास प्रेम के विशेष वश हो रहा है। (ऐसा लगता है) मानो जनकपुर में करुणा और विरह ने डेरा डाल दिया है॥337॥
02 चौपाई
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुक सारिका जानकी ज्याए। कनक पिञ्जरन्हि राखि पढाए॥
ब्याकुल कहहिं कहाँ बैदेही। सुनि धीरजु परिहरइ न केही॥1॥
मूल
सुक सारिका जानकी ज्याए। कनक पिञ्जरन्हि राखि पढाए॥
ब्याकुल कहहिं कहाँ बैदेही। सुनि धीरजु परिहरइ न केही॥1॥
भावार्थ
जानकी ने जिन तोता और मैना को पाल-पोसकर बडा किया था और सोने के पिञ्जडों में रखकर पढाया था, वे व्याकुल होकर कह रहे हैं- वैदेही कहाँ हैं। उनके ऐसे वचनों को सुनकर धीरज किसको नहीं त्याग देगा (अर्थात सबका धैर्य जाता रहा)॥1॥
भए बिकल खग मृग एहि भाँती। मनुज दसा कैसें कहि जाती॥
बन्धु समेत जनकु तब आए। प्रेम उमगि लोचन जल छाए॥2॥
मूल
भए बिकल खग मृग एहि भाँती। मनुज दसा कैसें कहि जाती॥
बन्धु समेत जनकु तब आए। प्रेम उमगि लोचन जल छाए॥2॥
भावार्थ
जब पक्षी और पशु तक इस तरह विकल हो गए, तब मनुष्यों की दशा कैसे कही जा सकती है! तब भाई सहित जनकजी वहाँ आए। प्रेम से उमडकर उनके नेत्रों में (प्रेमाश्रुओं का) जल भर आया॥2॥
सीय बिलोकि धीरता भागी। रहे कहावत परम बिरागी॥
लीन्हि रायँ उर लाइ जानकी। मिटी महामरजाद ग्यान की॥3॥
मूल
सीय बिलोकि धीरता भागी। रहे कहावत परम बिरागी॥
लीन्हि रायँ उर लाइ जानकी। मिटी महामरजाद ग्यान की॥3॥
भावार्थ
वे परम वैराग्यवान कहलाते थे, पर सीताजी को देखकर उनका भी धीरज भाग गया। राजा ने जानकीजी को हृदय से लगा लिया। (प्रेम के प्रभाव से) ज्ञान की महान मर्यादा मिट गई (ज्ञान का बाँध टूट गया)॥3॥
समुझावत सब सचिव सयाने। कीन्ह बिचारु न अवसर जाने॥
बारहिं बार सुता उर लाईं। सजि सुन्दर पालकीं मगाईं॥4॥
मूल
समुझावत सब सचिव सयाने। कीन्ह बिचारु न अवसर जाने॥
बारहिं बार सुता उर लाईं। सजि सुन्दर पालकीं मगाईं॥4॥
भावार्थ
सब बुद्धिमान मन्त्री उन्हें समझाते हैं। तब राजा ने विषाद करने का समय न जानकर विचार किया। बारम्बार पुत्रियों को हृदय से लगाकर सुन्दर सजी हुई पालकियाँ मँगवाई॥4॥