01 दोहा
बार बार कौसिक चरन सीसु नाइ कह राउ।
यह सबु सुखु मुनिराज तव कृपा कटाच्छ पसाउ॥331॥
मूल
बार बार कौसिक चरन सीसु नाइ कह राउ।
यह सबु सुखु मुनिराज तव कृपा कटाच्छ पसाउ॥331॥
भावार्थ
बार-बार विश्वामित्रजी के चरणों में सिर नवाकर राजा कहते हैं- हे मुनिराज! यह सब सुख आपके ही कृपाकटाक्ष का प्रसाद है॥331॥
02 चौपाई
विश्वास-प्रस्तुतिः
जनक सनेहु सीलु करतूती। नृपु सब भाँति सराह बिभूती॥
दिन उठि बिदा अवधपति मागा। राखहिं जनकु सहित अनुरागा॥1॥
मूल
जनक सनेहु सीलु करतूती। नृपु सब भाँति सराह बिभूती॥
दिन उठि बिदा अवधपति मागा। राखहिं जनकु सहित अनुरागा॥1॥
भावार्थ
राजा दशरथजी जनकजी के स्नेह, शील, करनी और ऐश्वर्य की सब प्रकार से सराहना करते हैं। प्रतिदिन (सबेरे) उठकर अयोध्या नरेश विदा माँगते हैं। पर जनकजी उन्हें प्रेम से रख लेते हैं॥1॥
नित नूतन आदरु अधिकाई। दिन प्रति सहस भाँति पहुनाई॥
नित नव नगर अनन्द उछाहू। दसरथ गवनु सोहाइ न काहू॥2॥
मूल
नित नूतन आदरु अधिकाई। दिन प्रति सहस भाँति पहुनाई॥
नित नव नगर अनन्द उछाहू। दसरथ गवनु सोहाइ न काहू॥2॥
भावार्थ
आदर नित्य नया बढता जाता है। प्रतिदिन हजारों प्रकार से मेहमानी होती है। नगर में नित्य नया आनन्द और उत्साह रहता है, दशरथजी का जाना किसी को नहीं सुहाता॥2॥
बहुत दिवस बीते एहि भाँती। जनु सनेह रजु बँधे बराती॥
कौसिक सतानन्द तब जाई। कहा बिदेह नृपहि समुझाई॥3॥
मूल
बहुत दिवस बीते एहि भाँती। जनु सनेह रजु बँधे बराती॥
कौसिक सतानन्द तब जाई। कहा बिदेह नृपहि समुझाई॥3॥
भावार्थ
इस प्रकार बहुत दिन बीत गए, मानो बाराती स्नेह की रस्सी से बँध गए हैं। तब विश्वामित्रजी और शतानन्दजी ने जाकर राजा जनक को समझाकर कहा-॥3॥
अब दसरथ कहँ आयसु देहू। जद्यपि छाडि न सकहु सनेहू॥
भलेहिं नाथ कहि सचिव बोलाए। कहि जय जीव सीस तिन्ह नाए॥4॥
मूल
अब दसरथ कहँ आयसु देहू। जद्यपि छाडि न सकहु सनेहू॥
भलेहिं नाथ कहि सचिव बोलाए। कहि जय जीव सीस तिन्ह नाए॥4॥
भावार्थ
यद्यपि आप स्नेह (वश उन्हें) नहीं छोड सकते, तो भी अब दशरथजी को आज्ञा दीजिए। ‘हे नाथ! बहुत अच्छा’ कहकर जनकजी ने मन्त्रियों को बुलवाया। वे आए और ‘जय जीव’ कहकर उन्होन्ने मस्तक नवाया॥4॥