01 दोहा
विश्वास-प्रस्तुतिः
देइ पान पूजे जनक दसरथु सहित समाज।
जनवासेहि गवने मुदित सकल भूप सिरताज॥329॥
मूल
देइ पान पूजे जनक दसरथु सहित समाज।
जनवासेहि गवने मुदित सकल भूप सिरताज॥329॥
भावार्थ
फिर पान देकर जनकजी ने समाज सहित दशरथजी का पूजन किया। सब राजाओं के सिरमौर (चक्रवर्ती) श्री दशरथजी प्रसन्न होकर जनवासे को चले॥329॥
02 चौपाई
विश्वास-प्रस्तुतिः
नित नूतन मङ्गल पुर माहीं। निमिष सरिस दिन जामिनि जाहीं॥
बडे भोर भूपतिमनि जागे। जाचक गुन गन गावन लागे॥1॥
मूल
नित नूतन मङ्गल पुर माहीं। निमिष सरिस दिन जामिनि जाहीं॥
बडे भोर भूपतिमनि जागे। जाचक गुन गन गावन लागे॥1॥
भावार्थ
जनकपुर में नित्य नए मङ्गल हो रहे हैं। दिन और रात पल के समान बीत जाते हैं। बडे सबेरे राजाओं के मुकुटमणि दशरथजी जागे। याचक उनके गुण समूह का गान करने लगे॥1॥
देखि कुअँर बर बधुन्ह समेता। किमि कहि जात मोदु मन जेता॥
प्रातक्रिया करि गे गुरु पाहीं। महाप्रमोदु प्रेमु मन माहीं॥2॥
मूल
देखि कुअँर बर बधुन्ह समेता। किमि कहि जात मोदु मन जेता॥
प्रातक्रिया करि गे गुरु पाहीं। महाप्रमोदु प्रेमु मन माहीं॥2॥
भावार्थ
चारों कुमारों को सुन्दर वधुओं सहित देखकर उनके मन में जितना आनन्द है, वह किस प्रकार कहा जा सकता है? वे प्रातः क्रिया करके गुरु वशिष्ठजी के पास गए। उनके मन में महान आनन्द और प्रेम भरा है॥2॥
करि प्रनामु पूजा कर जोरी। बोले गिरा अमिअँ जनु बोरी॥
तुम्हरी कृपाँ सुनहु मुनिराजा। भयउँ आजु मैं पूरन काजा॥3॥
मूल
करि प्रनामु पूजा कर जोरी। बोले गिरा अमिअँ जनु बोरी॥
तुम्हरी कृपाँ सुनहु मुनिराजा। भयउँ आजु मैं पूरन काजा॥3॥
भावार्थ
राजा प्रणाम और पूजन करके, फिर हाथ जोडकर मानो अमृत में डुबोई हुई वाणी बोले- हे मुनिराज! सुनिए, आपकी कृपा से आज मैं पूर्णकाम हो गया॥3॥
अब सब बिप्र बोलाइ गोसाईं। देहु धेनु सब भाँति बनाईं॥
सुनि गुर करि महिपाल बडाई। पुनि पठए मुनिबृन्द बोलाई॥4॥
मूल
अब सब बिप्र बोलाइ गोसाईं। देहु धेनु सब भाँति बनाईं॥
सुनि गुर करि महिपाल बडाई। पुनि पठए मुनिबृन्द बोलाई॥4॥
भावार्थ
हे स्वामिन्! अब सब ब्राह्मणों को बुलाकर उनको सब तरह (गहनों-कपडों) से सजी हुई गायें दीजिए। यह सुनकर गुरुजी ने राजा की बडाई करके फिर मुनिगणों को बुलवा भेजा॥4॥