01 दोहा
विश्वास-प्रस्तुतिः
सहित बधूटिन्ह कुअँर सब तब आए पितु पास।
सोभा मङ्गल मोद भरि उमगेउ जनु जनवास॥327॥
मूल
सहित बधूटिन्ह कुअँर सब तब आए पितु पास।
सोभा मङ्गल मोद भरि उमगेउ जनु जनवास॥327॥
भावार्थ
तब सब (चारों) कुमार बहुओं सहित पिताजी के पास आए। ऐसा मालूम होता था मानो शोभा, मङ्गल और आनन्द से भरकर जनवासा उमड पडा हो॥327॥
02 चौपाई
विश्वास-प्रस्तुतिः
पुनि जेवनार भई बहु भाँती। पठए जनक बोलाइ बराती॥
परत पाँवडे बसन अनूपा। सुतन्ह समेत गवन कियो भूपा॥1॥
मूल
पुनि जेवनार भई बहु भाँती। पठए जनक बोलाइ बराती॥
परत पाँवडे बसन अनूपा। सुतन्ह समेत गवन कियो भूपा॥1॥
भावार्थ
फिर बहुत प्रकार की रसोई बनी। जनकजी ने बारातियों को बुला भेजा। राजा दशरथजी ने पुत्रों सहित गमन किया। अनुपम वस्त्रों के पाँवडे पडते जाते हैं॥1॥
सादर सब के पाय पखारे। जथाजोगु पीढन्ह बैठारे॥
धोए जनक अवधपति चरना। सीलु सनेहु जाइ नहिं बरना॥2॥
मूल
सादर सब के पाय पखारे। जथाजोगु पीढन्ह बैठारे॥
धोए जनक अवधपति चरना। सीलु सनेहु जाइ नहिं बरना॥2॥
भावार्थ
आदर के साथ सबके चरण धोए और सबको यथायोग्य पीढों पर बैठाया। तब जनकजी ने अवधपति दशरथजी के चरण धोए। उनका शील और स्नेह वर्णन नहीं किया जा सकता॥2॥
बहुरि राम पद पङ्कज धोए। जे हर हृदय कमल महुँ गोए॥
तीनिउ भाइ राम सम जानी। धोए चरन जनक निज पानी॥3॥
मूल
बहुरि राम पद पङ्कज धोए। जे हर हृदय कमल महुँ गोए॥
तीनिउ भाइ राम सम जानी। धोए चरन जनक निज पानी॥3॥
भावार्थ
फिर श्री रामचन्द्रजी के चरणकमलों को धोया, जो श्री शिवजी के हृदय कमल में छिपे रहते हैं। तीनों भाइयों को श्री रामचन्द्रजी के समान जानकर जनकजी ने उनके भी चरण अपने हाथों से धोए॥3॥
आसन उचित सबहि नृप दीन्हे। बोलि सूपकारी सब लीन्हे॥
सादर लगे परन पनवारे। कनक कील मनि पान सँवारे॥4॥
मूल
आसन उचित सबहि नृप दीन्हे। बोलि सूपकारी सब लीन्हे॥
सादर लगे परन पनवारे। कनक कील मनि पान सँवारे॥4॥
भावार्थ
राजा जनकजी ने सभी को उचित आसन दिए और सब परसने वालों को बुला लिया। आदर के साथ पत्तलें पडने लगीं, जो मणियों के पत्तों से सोने की कील लगाकर बनाई गई थीं॥4॥