01 दोहा
विश्वास-प्रस्तुतिः
पुनि पुनि रामहि चितव सिय सकुचति मनु सकुचै न।
हरत मनोहर मीन छबि प्रेम पिआसे नैन॥326॥
मूल
पुनि पुनि रामहि चितव सिय सकुचति मनु सकुचै न।
हरत मनोहर मीन छबि प्रेम पिआसे नैन॥326॥
भावार्थ
सीताजी बार-बार रामजी को देखती हैं और सकुचा जाती हैं, पर उनका मन नहीं सकुचाता। प्रेम के प्यासे उनके नेत्र सुन्दर मछलियों की छबि को हर रहे हैं॥326॥
मासपारायण, ग्यारहवाँ विश्राम
मूल
मासपारायण, ग्यारहवाँ विश्राम
02 चौपाई
स्याम सरीरु सुभायँ सुहावन। सोभा कोटि मनोज लजावन॥
जावक जुत पद कमल सुहाए। मुनि मन मधुप रहत जिन्ह छाए॥1॥
मूल
स्याम सरीरु सुभायँ सुहावन। सोभा कोटि मनोज लजावन॥
जावक जुत पद कमल सुहाए। मुनि मन मधुप रहत जिन्ह छाए॥1॥
भावार्थ
श्री रामचन्द्रजी का साँवला शरीर स्वभाव से ही सुन्दर है। उसकी शोभा करोडों कामदेवों को लजाने वाली है। महावर से युक्त चरण कमल बडे सुहावने लगते हैं, जिन पर मुनियों के मन रूपी भौंरे सदा छाए रहते हैं॥1॥
पीत पुनीत मनोहर धोती। हरति बाल रबि दामिनि जोती॥
कल किङ्किनि कटि सूत्र मनोहर। बाहु बिसाल बिभूषन सुन्दर॥2॥
मूल
पीत पुनीत मनोहर धोती। हरति बाल रबि दामिनि जोती॥
कल किङ्किनि कटि सूत्र मनोहर। बाहु बिसाल बिभूषन सुन्दर॥2॥
भावार्थ
पवित्र और मनोहर पीली धोती प्रातःकाल के सूर्य और बिजली की ज्योति को हरे लेती है। कमर में सुन्दर किङ्किणी और कटिसूत्र हैं। विशाल भुजाओं में सुन्दर आभूषण सुशोभित हैं॥2॥
पीत जनेउ महाछबि देई। कर मुद्रिका चोरि चितु लेई॥
सोहत ब्याह साज सब साजे। उर आयत उरभूषन राजे॥3॥
मूल
पीत जनेउ महाछबि देई। कर मुद्रिका चोरि चितु लेई॥
सोहत ब्याह साज सब साजे। उर आयत उरभूषन राजे॥3॥
भावार्थ
पीला जनेऊ महान शोभा दे रहा है। हाथ की अँगूठी चित्त को चुरा लेती है। ब्याह के सब साज सजे हुए वे शोभा पा रहे हैं। चौडी छाती पर हृदय पर पहनने के सुन्दर आभूषण सुशोभित हैं॥3॥
पिअर उपरना काखासोती। दुहुँ आँचरन्हि लगे मनि मोती॥
नयन कमल कल कुण्डल काना। बदनु सकल सौन्दर्ज निदाना॥4॥
मूल
पिअर उपरना काखासोती। दुहुँ आँचरन्हि लगे मनि मोती॥
नयन कमल कल कुण्डल काना। बदनु सकल सौन्दर्ज निदाना॥4॥
भावार्थ
पीला दुपट्टा काँखासोती (जनेऊ की तरह) शोभित है, जिसके दोनों छोरों पर मणि और मोती लगे हैं। कमल के समान सुन्दर नेत्र हैं, कानों में सुन्दर कुण्डल हैं और मुख तो सारी सुन्दरता का खजाना ही है॥4॥
सुन्दर भृकुटि मनोहर नासा। भाल तिलकु रुचिरता निवासा॥
सोहत मौरु मनोहर माथे। मङ्गलमय मुकुता मनि गाथे॥5॥
मूल
सुन्दर भृकुटि मनोहर नासा। भाल तिलकु रुचिरता निवासा॥
सोहत मौरु मनोहर माथे। मङ्गलमय मुकुता मनि गाथे॥5॥
भावार्थ
सुन्दर भौंहें और मनोहर नासिका है। ललाट पर तिलक तो सुन्दरता का घर ही है, जिसमें मङ्गलमय मोती और मणि गुँथे हुए हैं, ऐसा मनोहर मौर माथे पर सोह रहा है॥5॥
03 छन्द
विश्वास-प्रस्तुतिः
गाथे महामनि मौर मञ्जुल अङ्ग सब चित चोरहीं।
पुर नारि सुर सुन्दरीं बरहि बिलोकि सब तिन तोरहीं॥
मनि बसन भूषन वारि आरति करहिं मङ्गल गावहीं।
सुर सुमन बरिसहिं सूत मागध बन्दि सुजसु सुनावहीं॥1॥
मूल
गाथे महामनि मौर मञ्जुल अङ्ग सब चित चोरहीं।
पुर नारि सुर सुन्दरीं बरहि बिलोकि सब तिन तोरहीं॥
मनि बसन भूषन वारि आरति करहिं मङ्गल गावहीं।
सुर सुमन बरिसहिं सूत मागध बन्दि सुजसु सुनावहीं॥1॥
भावार्थ
सुन्दर मौर में बहुमूल्य मणियाँ गुँथी हुई हैं, सभी अङ्ग चित्त को चुराए लेते हैं। सब नगर की स्त्रियाँ और देवसुन्दरियाँ दूलह को देखकर तिनका तोड रही हैं (उनकी बलैयाँ ले रही हैं) और मणि, वस्त्र तथा आभूषण निछावर करके आरती उतार रही और मङ्गलगान कर रही हैं। देवता फूल बरसा रहे हैं और सूत, मागध तथा भाट सुयश सुना रहे हैं॥1॥
कोहबरहिं आने कुअँर कुअँरि सुआसिनिन्ह सुख पाइ कै।
अति प्रीति लौकिक रीति लागीं करन मङ्गल गाइ कै॥
लहकौरि गौरि सिखाव रामहि सीय सन सारद कहैं।
रनिवासु हास बिलास रस बस जन्म को फलु सब लहैं॥2॥
मूल
कोहबरहिं आने कुअँर कुअँरि सुआसिनिन्ह सुख पाइ कै।
अति प्रीति लौकिक रीति लागीं करन मङ्गल गाइ कै॥
लहकौरि गौरि सिखाव रामहि सीय सन सारद कहैं।
रनिवासु हास बिलास रस बस जन्म को फलु सब लहैं॥2॥
भावार्थ
सुहागिनी स्त्रियाँ सुख पाकर कुँअर और कुमारियों को कोहबर (कुलदेवता के स्थान) में लाईं और अत्यन्त प्रेम से मङ्गल गीत गा-गाकर लौकिक रीति करने लगीं। पार्वतीजी श्री रामचन्द्रजी को लहकौर (वर-वधू का परस्पर ग्रास देना) सिखाती हैं और सरस्वतीजी सीताजी को सिखाती हैं। रनिवास हास-विलास के आनन्द में मग्न है, (श्री रामजी और सीताजी को देख-देखकर) सभी जन्म का परम फल प्राप्त कर रही हैं॥2॥
निज पानि मनि महुँ देखिअति मूरति सुरूपनिधान की।
चालति न भुजबल्ली बिलोकनि बिरह भय बस जानकी॥
कौतुक बिनोद प्रमोदु प्रेमु न जाइ कहि जानहिं अलीं।
बर कुअँरि सुन्दर सकल सखीं लवाइ जनवासेहि चलीं॥3॥
मूल
निज पानि मनि महुँ देखिअति मूरति सुरूपनिधान की।
चालति न भुजबल्ली बिलोकनि बिरह भय बस जानकी॥
कौतुक बिनोद प्रमोदु प्रेमु न जाइ कहि जानहिं अलीं।
बर कुअँरि सुन्दर सकल सखीं लवाइ जनवासेहि चलीं॥3॥
भावार्थ
‘अपने हाथ की मणियों में सुन्दर रूप के भण्डार श्री रामचन्द्रजी की परछाहीं दिख रही है। यह देखकर जानकीजी दर्शन में वियोग होने के भय से बाहु रूपी लता को और दृष्टि को हिलाती-डुलाती नहीं हैं। उस समय के हँसी-खेल और विनोद का आनन्द और प्रेम कहा नहीं जा सकता, उसे सखियाँ ही जानती हैं। तदनन्तर वर-कन्याओं को सब सुन्दर सखियाँ जनवासे को लिवा चलीं॥3॥
तेहि समय सुनिअ असीस जहँ तहँ नगर नभ आनँदु महा।
चिरु जिअहुँ जोरीं चारु चार्यो मुदित मन सबहीं कहा॥
जोगीन्द्र सिद्ध मुनीस देव बिलोकि प्रभु दुन्दुभि हनी।
चले हरषि बरषि प्रसून निज निज लोक जय जय जय भनी॥4॥
मूल
तेहि समय सुनिअ असीस जहँ तहँ नगर नभ आनँदु महा।
चिरु जिअहुँ जोरीं चारु चार्यो मुदित मन सबहीं कहा॥
जोगीन्द्र सिद्ध मुनीस देव बिलोकि प्रभु दुन्दुभि हनी।
चले हरषि बरषि प्रसून निज निज लोक जय जय जय भनी॥4॥
भावार्थ
उस समय नगर और आकाश में जहाँ सुनिए, वहीं आशीर्वाद की ध्वनि सुनाई दे रही है और महान आनन्द छाया है। सभी ने प्रसन्न मन से कहा कि सुन्दर चारों जोडियाँ चिरञ्जीवी हों। योगीराज, सिद्ध, मुनीश्वर और देवताओं ने प्रभु श्री रामचन्द्रजी को देखकर दुन्दुभी बजाई और हर्षित होकर फूलों की वर्षा करते हुए तथा ‘जय हो, जय हो, जय हो’ कहते हुए वे अपने-अपने लोक को चले॥4॥