01 दोहा
विश्वास-प्रस्तुतिः
मुदित अवधपति सकल सुत बधुन्ह समेत निहारि।
जनु पाए महिपाल मनि क्रियन्ह सहित फल चारि॥325॥
मूल
मुदित अवधपति सकल सुत बधुन्ह समेत निहारि।
जनु पाए महिपाल मनि क्रियन्ह सहित फल चारि॥325॥
भावार्थ
सब पुत्रों को बहुओं सहित देखकर अवध नरेश दशरथजी ऐसे आनन्दित हैं, मानो वे राजाओं के शिरोमणि क्रियाओं (यज्ञक्रिया, श्रद्धाक्रिया, योगक्रिया और ज्ञानक्रिया) सहित चारों फल (अर्थ, धर्म, काम और मोक्ष) पा गए हों॥325॥
02 चौपाई
विश्वास-प्रस्तुतिः
जसि रघुबीर ब्याह बिधि बरनी। सकल कुअँर ब्याहे तेहिं करनी॥
कहि न जा कछु दाइज भूरी। रहा कनक मनि मण्डपु पूरी॥1॥
मूल
जसि रघुबीर ब्याह बिधि बरनी। सकल कुअँर ब्याहे तेहिं करनी॥
कहि न जा कछु दाइज भूरी। रहा कनक मनि मण्डपु पूरी॥1॥
भावार्थ
श्री रामचन्द्रजी के विवाह की जैसी विधि वर्णन की गई, उसी रीति से सब राजकुमार विवाहे गए। दहेज की अधिकता कुछ कही नहीं जाती, सारा मण्डप सोने और मणियों से भर गया॥1॥
कम्बल बसन बिचित्र पटोरे। भाँति भाँति बहु मोल न थोरे॥
गज रथ तुरगदास अरु दासी। धेनु अलङ्कृत कामदुहा सी॥2॥
मूल
कम्बल बसन बिचित्र पटोरे। भाँति भाँति बहु मोल न थोरे॥
गज रथ तुरगदास अरु दासी। धेनु अलङ्कृत कामदुहा सी॥2॥
भावार्थ
बहुत से कम्बल, वस्त्र और भाँति-भाँति के विचित्र रेशमी कपडे, जो थोडी कीमत के न थे (अर्थात बहुमूल्य थे) तथा हाथी, रथ, घोडे, दास-दासियाँ और गहनों से सजी हुई कामधेनु सरीखी गायें-॥2॥
बस्तु अनेक करिअ किमि लेखा। कहि न जाइ जानहिं जिन्ह देखा॥
लोकपाल अवलोकि सिहाने। लीन्ह अवधपति सबु सुखु माने॥3॥
मूल
बस्तु अनेक करिअ किमि लेखा। कहि न जाइ जानहिं जिन्ह देखा॥
लोकपाल अवलोकि सिहाने। लीन्ह अवधपति सबु सुखु माने॥3॥
भावार्थ
(आदि) अनेकों वस्तुएँ हैं, जिनकी गिनती कैसे की जाए। उनका वर्णन नहीं किया जा सकता, जिन्होन्ने देखा है, वही जानते हैं। उन्हें देखकर लोकपाल भी सिहा गए। अवधराज दशरथजी ने सुख मानकर प्रसन्नचित्त से सब कुछ ग्रहण किया॥3॥
दीन्ह जाचकन्हि जो जेहि भावा। उबरा सो जनवासेहिं आवा॥
तब कर जोरि जनकु मृदु बानी। बोले सब बरात सनमानी॥4॥
मूल
दीन्ह जाचकन्हि जो जेहि भावा। उबरा सो जनवासेहिं आवा॥
तब कर जोरि जनकु मृदु बानी। बोले सब बरात सनमानी॥4॥
भावार्थ
उन्होन्ने वह दहेज का सामान याचकों को, जो जिसे अच्छा लगा, दे दिया। जो बच रहा, वह जनवासे में चला आया। तब जनकजी हाथ जोडकर सारी बारात का सम्मान करते हुए कोमल वाणी से बोले॥4॥
03 छन्द
विश्वास-प्रस्तुतिः
सनमानि सकल बरात आदर दान बिनय बडाइ कै।
प्रमुदित महामुनि बृन्द बन्दे पूजि प्रेम लडाइ कै॥
सिरु नाइ देव मनाइ सब सन कहत कर सम्पुट किएँ।
सुर साधु चाहत भाउ सिन्धु कि तोष जल अञ्जलि दिएँ॥1॥
मूल
सनमानि सकल बरात आदर दान बिनय बडाइ कै।
प्रमुदित महामुनि बृन्द बन्दे पूजि प्रेम लडाइ कै॥
सिरु नाइ देव मनाइ सब सन कहत कर सम्पुट किएँ।
सुर साधु चाहत भाउ सिन्धु कि तोष जल अञ्जलि दिएँ॥1॥
भावार्थ
आदर, दान, विनय और बडाई के द्वारा सारी बारात का सम्मान कर राजा जनक ने महान आनन्द के साथ प्रेमपूर्वक लडाकर (लाड करके) मुनियों के समूह की पूजा एवं वन्दना की। सिर नवाकर, देवताओं को मनाकर, राजा हाथ जोडकर सबसे कहने लगे कि देवता और साधु तो भाव ही चाहते हैं, (वे प्रेम से ही प्रसन्न हो जाते हैं, उन पूर्णकाम महानुभावों को कोई कुछ देकर कैसे सन्तुष्ट कर सकता है), क्या एक अञ्जलि जल देने से कहीं समुद्र सन्तुष्ट हो सकता है॥1॥
कर जोरि जनकु बहोरि बन्धु समेत कोसलराय सों।
बोले मनोहर बयन सानि सनेह सील सुभाय सों॥
सम्बन्ध राजन रावरें हम बडे अब सब बिधि भए।
एहि राज साज समेत सेवक जानिबे बिनु गथ लए॥2॥
मूल
कर जोरि जनकु बहोरि बन्धु समेत कोसलराय सों।
बोले मनोहर बयन सानि सनेह सील सुभाय सों॥
सम्बन्ध राजन रावरें हम बडे अब सब बिधि भए।
एहि राज साज समेत सेवक जानिबे बिनु गथ लए॥2॥
भावार्थ
फिर जनकजी भाई सहित हाथ जोडकर कोसलाधीश दशरथजी से स्नेह, शील और सुन्दर प्रेम में सानकर मनोहर वचन बोले- हे राजन्! आपके साथ सम्बन्ध हो जाने से अब हम सब प्रकार से बडे हो गए। इस राज-पाट सहित हम दोनों को आप बिना दाम के लिए हुए सेवक ही समझिएगा॥2॥
ए दारिका परिचारिका करि पालिबीं करुना नई।
अपराधु छमिबो बोलि पठए बहुत हौं ढीट्यो कई॥
पुनि भानुकुलभूषन सकल सनमान निधि समधी किए।
कहि जाति नहिं बिनती परस्पर प्रेम परिपूरन हिए॥3॥
मूल
ए दारिका परिचारिका करि पालिबीं करुना नई।
अपराधु छमिबो बोलि पठए बहुत हौं ढीट्यो कई॥
पुनि भानुकुलभूषन सकल सनमान निधि समधी किए।
कहि जाति नहिं बिनती परस्पर प्रेम परिपूरन हिए॥3॥
भावार्थ
इन लडकियों को टहलनी मानकर, नई-नई दया करके पालन कीजिएगा। मैन्ने बडी ढिठाई की कि आपको यहाँ बुला भेजा, अपराध क्षमा कीजिएगा। फिर सूर्यकुल के भूषण दशरथजी ने समधी जनकजी को सम्पूर्ण सम्मान का निधि कर दिया (इतना सम्मान किया कि वे सम्मान के भण्डार ही हो गए)। उनकी परस्पर की विनय कही नहीं जाती, दोनों के हृदय प्रेम से परिपूर्ण हैं॥3॥
बृन्दारका गन सुमन बरिसहिं राउ जनवासेहि चले।
दुन्दुभी जय धुनि बेद धुनि नभ नगर कौतूहल भले॥
तब सखीं मङ्गल गान करत मुनीस आयसु पाइ कै।
दूलह दुलहिनिन्ह सहित सुन्दरि चलीं कोहबर ल्याइ कै॥4॥
मूल
बृन्दारका गन सुमन बरिसहिं राउ जनवासेहि चले।
दुन्दुभी जय धुनि बेद धुनि नभ नगर कौतूहल भले॥
तब सखीं मङ्गल गान करत मुनीस आयसु पाइ कै।
दूलह दुलहिनिन्ह सहित सुन्दरि चलीं कोहबर ल्याइ कै॥4॥
भावार्थ
देवतागण फूल बरसा रहे हैं, राजा जनवासे को चले। नगाडे की ध्वनि, जयध्वनि और वेद की ध्वनि हो रही है, आकाश और नगर दोनों में खूब कौतूहल हो रहा है (आनन्द छा रहा है), तब मुनीश्वर की आज्ञा पाकर सुन्दरी सखियाँ मङ्गलगान करती हुई दुलहिनों सहित दूल्हों को लिवाकर कोहबर को चलीं॥4॥