323

01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

होम समय तनु धरि अनलु अति सुख आहुति लेहिं।
बिप्र बेष धरि बेद सब कहि बिबाह बिधि देहिं॥323॥

मूल

होम समय तनु धरि अनलु अति सुख आहुति लेहिं।
बिप्र बेष धरि बेद सब कहि बिबाह बिधि देहिं॥323॥

भावार्थ

हवन के समय अग्निदेव शरीर धारण करके बडे ही सुख से आहुति ग्रहण करते हैं और सारे वेद ब्राह्मण वेष धरकर विवाह की विधियाँ बताए देते हैं॥323॥

02 चौपाई

जनक पाटमहिषी जग जानी। सीय मातु किमि जाइ बखानी॥
सुजसु सुकृत सुख सुन्दरताई। सब समेटि बिधि रची बनाई॥1॥

मूल

जनक पाटमहिषी जग जानी। सीय मातु किमि जाइ बखानी॥
सुजसु सुकृत सुख सुन्दरताई। सब समेटि बिधि रची बनाई॥1॥

भावार्थ

जनकजी की जगविख्यात पटरानी और सीताजी की माता का बखान तो हो ही कैसे सकता है। सुयश, सुकृत (पुण्य), सुख और सुन्दरता सबको बटोरकर विधाता ने उन्हें सँवारकर तैयार किया है॥1॥

समउ जानि मुनिबरन्ह बोलाईं। सुनत सुआसिनि सादर ल्याईं॥
जनक बाम दिसि सोह सुनयना। हिमगिरि सङ्ग बनी जनु मयना॥2॥

मूल

समउ जानि मुनिबरन्ह बोलाईं। सुनत सुआसिनि सादर ल्याईं॥
जनक बाम दिसि सोह सुनयना। हिमगिरि सङ्ग बनी जनु मयना॥2॥

भावार्थ

समय जानकर श्रेष्ठ मुनियों ने उनको बुलवाया। यह सुनते ही सुहागिनी स्त्रियाँ उन्हें आदरपूर्वक ले आईं। सुनयनाजी (जनकजी की पटरानी) जनकजी की बाईं ओर ऐसी सोह रही हैं, मानो हिमाचल के साथ मैनाजी शोभित हों॥2॥

कनक कलस मनि कोपर रूरे। सुचि सुगन्ध मङ्गल जल पूरे॥
निज कर मुदित रायँ अरु रानी। धरे राम के आगें आनी॥3॥

मूल

कनक कलस मनि कोपर रूरे। सुचि सुगन्ध मङ्गल जल पूरे॥
निज कर मुदित रायँ अरु रानी। धरे राम के आगें आनी॥3॥

भावार्थ

पवित्र, सुगन्धित और मङ्गल जल से भरे सोने के कलश और मणियों की सुन्दर परातें राजा और रानी ने आनन्दित होकर अपने हाथों से लाकर श्री रामचन्द्रजी के आगे रखीं॥3॥

पढहिं बेद मुनि मङ्गल बानी। गगन सुमन झरि अवसरु जानी॥
बरु बिलोकि दम्पति अनुरागे। पाय पुनीत पखारन लागे॥4॥

मूल

पढहिं बेद मुनि मङ्गल बानी। गगन सुमन झरि अवसरु जानी॥
बरु बिलोकि दम्पति अनुरागे। पाय पुनीत पखारन लागे॥4॥

भावार्थ

मुनि मङ्गलवाणी से वेद पढ रहे हैं। सुअवसर जानकर आकाश से फूलों की झडी लग गई है। दूलह को देखकर राजा-रानी प्रेममग्न हो गए और उनके पवित्र चरणों को पखारने लगे॥4॥

03 छन्द

विश्वास-प्रस्तुतिः

लागे पखारन पाय पङ्कज प्रेम तन पुलकावली।
नभ नगर गान निसान जय धुनि उमगि जनु चहुँ दिसि चली॥
जे पद सरोज मनोज अरि उर सर सदैव बिराजहीं।
जे सुकृत सुमिरत बिमलता मन सकल कलि मल भाजहीं॥1॥

मूल

लागे पखारन पाय पङ्कज प्रेम तन पुलकावली।
नभ नगर गान निसान जय धुनि उमगि जनु चहुँ दिसि चली॥
जे पद सरोज मनोज अरि उर सर सदैव बिराजहीं।
जे सुकृत सुमिरत बिमलता मन सकल कलि मल भाजहीं॥1॥

भावार्थ

वे श्री रामजी के चरण कमलों को पखारने लगे, प्रेम से उनके शरीर में पुलकावली छा रही है। आकाश और नगर में होने वाली गान, नगाडे और जय-जयकार की ध्वनि मानो चारों दिशाओं में उमड चली, जो चरण कमल कामदेव के शत्रु श्री शिवजी के हृदय रूपी सरोवर में सदा ही विराजते हैं, जिनका एक बार भी स्मरण करने से मन में निर्मलता आ जाती है और कलियुग के सारे पाप भाग जाते हैं,॥1॥

जे परसि मुनिबनिता लही गति रही जो पातकमई।
मकरन्दु जिन्ह को सम्भु सिर सुचिता अवधि सुर बरनई॥
करि मधुप मन मुनि जोगिजन जे सेइ अभिमत गति लहैं।
ते पद पखारत भाग्यभाजनु जनकु जय जय सब कहैं॥2॥

मूल

जे परसि मुनिबनिता लही गति रही जो पातकमई।
मकरन्दु जिन्ह को सम्भु सिर सुचिता अवधि सुर बरनई॥
करि मधुप मन मुनि जोगिजन जे सेइ अभिमत गति लहैं।
ते पद पखारत भाग्यभाजनु जनकु जय जय सब कहैं॥2॥

भावार्थ

जिनका स्पर्श पाकर गौतम मुनि की स्त्री अहल्या ने, जो पापमयी थी, परमगति पाई, जिन चरणकमलों का मकरन्द रस (गङ्गाजी) शिवजी के मस्तक पर विराजमान है, जिसको देवता पवित्रता की सीमा बताते हैं, मुनि और योगीजन अपने मन को भौंरा बनाकर जिन चरणकमलों का सेवन करके मनोवाञ्छित गति प्राप्त करते हैं, उन्हीं चरणों को भाग्य के पात्र (बडभागी) जनकजी धो रहे हैं, यह देखकर सब जय-जयकार कर रहे हैं॥2॥

बर कुअँरि करतल जोरि साखोचारु दोउ कुलगुर करैं।
भयो पानिगहनु बिलोकि बिधि सुर मनुज मुनि आनँद भरैं॥
सुखमूल दूलहु देखि दम्पति पुलक तन हुलस्यो हियो।
करि लोक बेद बिधानु कन्यादानु नृपभूषन कियो॥3॥

मूल

बर कुअँरि करतल जोरि साखोचारु दोउ कुलगुर करैं।
भयो पानिगहनु बिलोकि बिधि सुर मनुज मुनि आनँद भरैं॥
सुखमूल दूलहु देखि दम्पति पुलक तन हुलस्यो हियो।
करि लोक बेद बिधानु कन्यादानु नृपभूषन कियो॥3॥

भावार्थ

दोनों कुलों के गुरु वर और कन्या की हथेलियों को मिलाकर शाखोच्चार करने लगे। पाणिग्रहण हुआ देखकर ब्रह्मादि देवता, मनुष्य और मुनि आनन्द में भर गए। सुख के मूल दूलह को देखकर राजा-रानी का शरीर पुलकित हो गया और हृदय आनन्द से उमङ्ग उठा। राजाओं के अलङ्कार स्वरूप महाराज जनकजी ने लोक और वेद की रीति को करके कन्यादान किया॥3॥

हिमवन्त जिमि गिरिजा महेसहि हरिहि श्री सागर दई।
तिमि जनक रामहि सिय समरपी बिस्व कल कीरति नई॥
क्यों करै बिनय बिदेहु कियो बिदेहु मूरति सावँरीं।
करि होमु बिधिवत गाँठि जोरी होन लागीं भावँरीं॥4॥

मूल

हिमवन्त जिमि गिरिजा महेसहि हरिहि श्री सागर दई।
तिमि जनक रामहि सिय समरपी बिस्व कल कीरति नई॥
क्यों करै बिनय बिदेहु कियो बिदेहु मूरति सावँरीं।
करि होमु बिधिवत गाँठि जोरी होन लागीं भावँरीं॥4॥

भावार्थ

जैसे हिमवान ने शिवजी को पार्वतीजी और सागर ने भगवान विष्णु को लक्ष्मीजी दी थीं, वैसे ही जनकजी ने श्री रामचन्द्रजी को सीताजी समर्पित कीं, जिससे विश्व में सुन्दर नवीन कीर्ति छा गई। विदेह (जनकजी) कैसे विनती करें! उस साँवली मूर्ति ने तो उन्हें सचमुच विदेह (देह की सुध-बुध से रहित) ही कर दिया। विधिपूर्वक हवन करके गठजोडी की गई और भाँवरें होने लगीं॥4॥