317

01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

सजि आरती अनेक बिधि मङ्गल सकल सँवारि।
चलीं मुदित परिछनि करन गजगामिनि बर नारि॥317॥

मूल

सजि आरती अनेक बिधि मङ्गल सकल सँवारि।
चलीं मुदित परिछनि करन गजगामिनि बर नारि॥317॥

भावार्थ

अनेक प्रकार से आरती सजकर और समस्त मङ्गल द्रव्यों को यथायोग्य सजाकर गजगामिनी (हाथी की सी चाल वाली) उत्तम स्त्रियाँ आनन्दपूर्वक परछन के लिए चलीं॥317॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिधुबदनीं सब सब मृगलोचनि। सब निज तन छबि रति मदु मोचनि॥
पहिरें बरन बरन बर चीरा। सकल बिभूषन सजें सरीरा॥1॥

मूल

बिधुबदनीं सब सब मृगलोचनि। सब निज तन छबि रति मदु मोचनि॥
पहिरें बरन बरन बर चीरा। सकल बिभूषन सजें सरीरा॥1॥

भावार्थ

सभी स्त्रियाँ चन्द्रमुखी (चन्द्रमा के समान मुख वाली) और सभी मृगलोचनी (हरिण की सी आँखों वाली) हैं और सभी अपने शरीर की शोभा से रति के गर्व को छुडाने वाली हैं। रङ्ग-रङ्ग की सुन्दर साडियाँ पहने हैं और शरीर पर सब आभूषण सजे हुए हैं॥1॥

सकल सुमङ्गल अङ्ग बनाएँ। करहिं गान कलकण्ठि लजाएँ॥
कङ्कन किङ्किनि नूपुर बाजहिं। चालि बिलोकि काम गज लाजहिं॥2॥

मूल

सकल सुमङ्गल अङ्ग बनाएँ। करहिं गान कलकण्ठि लजाएँ॥
कङ्कन किङ्किनि नूपुर बाजहिं। चालि बिलोकि काम गज लाजहिं॥2॥

भावार्थ

समस्त अङ्गों को सुन्दर मङ्गल पदार्थों से सजाए हुए वे कोयल को भी लजाती हुई (मधुर स्वर से) गान कर रही हैं। कङ्गन, करधनी और नूपुर बज रहे हैं। स्त्रियों की चाल देखकर कामदेव के हाथी भी लजा जाते हैं॥2॥

बाजहिं बाजने बिबिध प्रकारा। नभ अरु नगर सुमङ्गलचारा॥
सची सारदा रमा भवानी। जे सुरतिय सुचि सजह सयानी॥3॥

मूल

बाजहिं बाजने बिबिध प्रकारा। नभ अरु नगर सुमङ्गलचारा॥
सची सारदा रमा भवानी। जे सुरतिय सुचि सजह सयानी॥3॥

भावार्थ

अनेक प्रकार के बाजे बज रहे हैं, आकाश और नगर दोनों स्थानों में सुन्दर मङ्गलाचार हो रहे हैं। शची (इन्द्राणी), सरस्वती, लक्ष्मी, पार्वती और जो स्वभाव से ही पवित्र और सयानी देवाङ्गनाएँ थीं,॥3॥

कपट नारि बर बेष बनाई। मिली सकल रनिवासहिं जाई॥
करहिं गान कल मङ्गल बानीं। हरष बिबस सब काहुँ न जानीं॥4॥

मूल

कपट नारि बर बेष बनाई। मिली सकल रनिवासहिं जाई॥
करहिं गान कल मङ्गल बानीं। हरष बिबस सब काहुँ न जानीं॥4॥

भावार्थ

वे सब कपट से सुन्दर स्त्री का वेश बनाकर रनिवास में जा मिलीं और मनोहर वाणी से मङ्गलगान करने लगीं। सब कोई हर्ष के विशेष वश थे, अतः किसी ने उन्हें पहचाना नहीं॥4॥

03 छन्द

विश्वास-प्रस्तुतिः

को जान केहि आनन्द बस सब ब्रह्मु बर परिछन चली।
कल गान मधुर निसान बरषहिं सुमन सुर सोभा भली॥
आनन्दकन्दु बिलोकि दूलहु सकलहियँ हरषित भई।
अम्भोज अम्बक अम्बु उमगि सुअङ्ग पुलकावलि छई॥

मूल

को जान केहि आनन्द बस सब ब्रह्मु बर परिछन चली।
कल गान मधुर निसान बरषहिं सुमन सुर सोभा भली॥
आनन्दकन्दु बिलोकि दूलहु सकलहियँ हरषित भई।
अम्भोज अम्बक अम्बु उमगि सुअङ्ग पुलकावलि छई॥

भावार्थ

कौन किसे जाने-पहिचाने! आनन्द के वश हुई सब दूलह बने हुए ब्रह्म का परछन करने चलीं। मनोहर गान हो रहा है। मधुर-मधुर नगाडे बज रहे हैं, देवता फूल बरसा रहे हैं, बडी अच्छी शोभा है। आनन्दकन्द दूलह को देखकर सब स्त्रियाँ हृदय में हर्षित हुईं। उनके कमल सरीखे नेत्रों में प्रेमाश्रुओं का जल उमड आया और सुन्दर अङ्गों में पुलकावली छा गई॥