01 दोहा
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रभु मनसहिं लयलीन मनु चलत बाजि छबि पाव।
भूषित उडगन तडित घनु जनु बर बरहि नचाव॥316॥
मूल
प्रभु मनसहिं लयलीन मनु चलत बाजि छबि पाव।
भूषित उडगन तडित घनु जनु बर बरहि नचाव॥316॥
भावार्थ
प्रभु की इच्छा में अपने मन को लीन किए चलता हुआ वह घोडा बडी शोभा पा रहा है। मानो तारागण तथा बिजली से अलङ्कृत मेघ सुन्दर मोर को नचा रहा हो॥316॥
02 चौपाई
विश्वास-प्रस्तुतिः
जेहिं बर बाजि रामु असवारा। तेहि सारदउ न बरनै पारा॥
सङ्करु राम रूप अनुरागे। नयन पञ्चदस अति प्रिय लागे॥1॥
मूल
जेहिं बर बाजि रामु असवारा। तेहि सारदउ न बरनै पारा॥
सङ्करु राम रूप अनुरागे। नयन पञ्चदस अति प्रिय लागे॥1॥
भावार्थ
जिस श्रेष्ठ घोडे पर श्री रामचन्द्रजी सवार हैं, उसका वर्णन सरस्वतीजी भी नहीं कर सकतीं। शङ्करजी श्री रामचन्द्रजी के रूप में ऐसे अनुरक्त हुए कि उन्हें अपने पन्द्रह नेत्र इस समय बहुत ही प्यारे लगने लगे॥1॥
हरि हित सहित रामु जब जोहे। रमा समेत रमापति मोहे॥
निरखि राम छबि बिधि हरषाने। आठइ नयन जानि पछिताने॥2॥
मूल
हरि हित सहित रामु जब जोहे। रमा समेत रमापति मोहे॥
निरखि राम छबि बिधि हरषाने। आठइ नयन जानि पछिताने॥2॥
भावार्थ
भगवान विष्णु ने जब प्रेम सहित श्री राम को देखा, तब वे (रमणीयता की मूर्ति) श्री लक्ष्मीजी के पति श्री लक्ष्मीजी सहित मोहित हो गए। श्री रामचन्द्रजी की शोभा देखकर ब्रह्माजी बडे प्रसन्न हुए, पर अपने आठ ही नेत्र जानकर पछताने लगे॥2॥
सुर सेनप उर बहुत उछाहू। बिधि ते डेवढ लोचन लाहू॥
रामहि चितव सुरेस सुजाना। गौतम श्रापु परम हित माना॥3॥
मूल
सुर सेनप उर बहुत उछाहू। बिधि ते डेवढ लोचन लाहू॥
रामहि चितव सुरेस सुजाना। गौतम श्रापु परम हित माना॥3॥
भावार्थ
देवताओं के सेनापति स्वामि कार्तिक के हृदय में बडा उत्साह है, क्योङ्कि वे ब्रह्माजी से ड्योढे अर्थात बारह नेत्रों से रामदर्शन का सुन्दर लाभ उठा रहे हैं। सुजान इन्द्र (अपने हजार नेत्रों से) श्री रामचन्द्रजी को देख रहे हैं और गौतमजी के शाप को अपने लिए परम हितकर मान रहे हैं॥3॥
देव सकल सुरपतिहि सिहाहीं। आजु पुरन्दर सम कोउ नाहीं॥
मुदित देवगन रामहि देखी। नृपसमाज दुहुँ हरषु बिसेषी॥4॥
मूल
देव सकल सुरपतिहि सिहाहीं। आजु पुरन्दर सम कोउ नाहीं॥
मुदित देवगन रामहि देखी। नृपसमाज दुहुँ हरषु बिसेषी॥4॥
भावार्थ
सभी देवता देवराज इन्द्र से ईर्षा कर रहे हैं (और कह रहे हैं) कि आज इन्द्र के समान भाग्यवान दूसरा कोई नहीं है। श्री रामचन्द्रजी को देखकर देवगण प्रसन्न हैं और दोनों राजाओं के समाज में विशेष हर्ष छा रहा है॥4॥
03 छन्द
विश्वास-प्रस्तुतिः
अति हरषु राजसमाज दुहु दिसि दुन्दुभीं बाजहिं घनी।
बरषहिं सुमन सुर हरषि कहि जय जयति जय रघुकुलमनी॥
एहि भाँति जानि बरात आवत बाजने बहु बाजहीं।
रानी सुआसिनि बोलि परिछनि हेतु मङ्गल साजहीं॥
मूल
अति हरषु राजसमाज दुहु दिसि दुन्दुभीं बाजहिं घनी।
बरषहिं सुमन सुर हरषि कहि जय जयति जय रघुकुलमनी॥
एहि भाँति जानि बरात आवत बाजने बहु बाजहीं।
रानी सुआसिनि बोलि परिछनि हेतु मङ्गल साजहीं॥
भावार्थ
दोनों ओर से राजसमाज में अत्यन्त हर्ष है और बडे जोर से नगाडे बज रहे हैं। देवता प्रसन्न होकर और ‘रघुकुलमणि श्री राम की जय हो, जय हो, जय हो’ कहकर फूल बरसा रहे हैं। इस प्रकार बारात को आती हुई जानकर बहुत प्रकार के बाजे बजने लगे और रानी सुहागिन स्त्रियों को बुलाकर परछन के लिए मङ्गल द्रव्य सजाने लगीं॥