01 दोहा
विश्वास-प्रस्तुतिः
धेनुधूरि बेला बिमल सकल सुमङ्गल मूल।
बिप्रन्ह कहेउ बिदेह सन जानि सगुन अनुकूल॥312॥
मूल
धेनुधूरि बेला बिमल सकल सुमङ्गल मूल।
बिप्रन्ह कहेउ बिदेह सन जानि सगुन अनुकूल॥312॥
भावार्थ
निर्मल और सभी सुन्दर मङ्गलों की मूल गोधूलि की पवित्र बेला आ गई और अनुकूल शकुन होने लगे, यह जानकर ब्राह्मणों ने जनकजी से कहा॥312॥
02 चौपाई
विश्वास-प्रस्तुतिः
उपरोहितहि कहेउ नरनाहा। अब बिलम्ब कर कारनु काहा॥
सतानन्द तब सचिव बोलाए। मङ्गल सकल साजि सब ल्याए॥1॥
मूल
उपरोहितहि कहेउ नरनाहा। अब बिलम्ब कर कारनु काहा॥
सतानन्द तब सचिव बोलाए। मङ्गल सकल साजि सब ल्याए॥1॥
भावार्थ
तब राजा जनक ने पुरोहित शतानन्दजी से कहा कि अब देरी का क्या कारण है। तब शतानन्दजी ने मन्त्रियों को बुलाया। वे सब मङ्गल का सामान सजाकर ले आए॥1॥
सङ्ख निसान पनव बहु बाजे। मङ्गल कलस सगुन सुभ साजे॥
सुभग सुआसिनि गावहिं गीता। करहिं बेद धुनि बिप्र पुनीता॥2॥
मूल
सङ्ख निसान पनव बहु बाजे। मङ्गल कलस सगुन सुभ साजे॥
सुभग सुआसिनि गावहिं गीता। करहिं बेद धुनि बिप्र पुनीता॥2॥
भावार्थ
शङ्ख, नगाडे, ढोल और बहुत से बाजे बजने लगे तथा मङ्गल कलश और शुभ शकुन की वस्तुएँ (दधि, दूर्वा आदि) सजाई गईं। सुन्दर सुहागिन स्त्रियाँ गीत गा रही हैं और पवित्र ब्राह्मण वेद की ध्वनि कर रहे हैं॥2॥
लेन चले सादर एहि भाँती। गए जहाँ जनवास बराती॥
कोसलपति कर देखि समाजू। अति लघु लाग तिन्हहि सुरराजू॥3॥
मूल
लेन चले सादर एहि भाँती। गए जहाँ जनवास बराती॥
कोसलपति कर देखि समाजू। अति लघु लाग तिन्हहि सुरराजू॥3॥
भावार्थ
सब लोग इस प्रकार आदरपूर्वक बारात को लेने चले और जहाँ बारातियों का जनवासा था, वहाँ गए। अवधपति दशरथजी का समाज (वैभव) देखकर उनको देवराज इन्द्र भी बहुत ही तुच्छ लगने लगे॥3॥
भयउ समउ अब धारिअ पाऊ। यह सुनि परा निसानहिं घाऊ ॥
गुरहि पूछि करि कुल बिधि राजा। चले सङ्ग मुनि साधु समाजा॥4॥
मूल
भयउ समउ अब धारिअ पाऊ। यह सुनि परा निसानहिं घाऊ ॥
गुरहि पूछि करि कुल बिधि राजा। चले सङ्ग मुनि साधु समाजा॥4॥
भावार्थ
(उन्होन्ने जाकर विनती की-) समय हो गया, अब पधारिए। यह सुनते ही नगाडों पर चोट पडी। गुरु वशिष्ठजी से पूछकर और कुल की सब रीतियों को करके राजा दशरथजी मुनियों और साधुओं के समाज को साथ लेकर चले॥4॥