310

01 दोहा

बारहिं बार सनेह बस जनक बोलाउब सीय।
लेन आइहहिं बन्धु दोउ कोटि काम कमनीय॥310॥

मूल

बारहिं बार सनेह बस जनक बोलाउब सीय।
लेन आइहहिं बन्धु दोउ कोटि काम कमनीय॥310॥

भावार्थ

जनकजी स्नेहवश बार-बार सीताजी को बुलावेङ्गे और करोडों कामदेवों के समान सुन्दर दोनों भाई सीताजी को लेने (विदा कराने) आया करेङ्गे॥310॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिबिध भाँति होइहि पहुनाई। प्रिय न काहि अस सासुर माई॥
तब तब राम लखनहि निहारी। होइहहिं सब पुर लोग सुखारी॥1॥

मूल

बिबिध भाँति होइहि पहुनाई। प्रिय न काहि अस सासुर माई॥
तब तब राम लखनहि निहारी। होइहहिं सब पुर लोग सुखारी॥1॥

भावार्थ

तब उनकी अनेकों प्रकार से पहुनाई होगी। सखी! ऐसी ससुराल किसे प्यारी न होगी! तब-तब हम सब नगर निवासी श्री राम-लक्ष्मण को देख-देखकर सुखी होङ्गे॥1॥

सखि जस राम लखन कर जोटा। तैसेइ भूप सङ्ग हुइ ढोटा॥
स्याम गौर सब अङ्ग सुहाए। ते सब कहहिं देखि जे आए॥2॥

मूल

सखि जस राम लखन कर जोटा। तैसेइ भूप सङ्ग हुइ ढोटा॥
स्याम गौर सब अङ्ग सुहाए। ते सब कहहिं देखि जे आए॥2॥

भावार्थ

हे सखी! जैसा श्री राम-लक्ष्मण का जोडा है, वैसे ही दो कुमार राजा के साथ और भी हैं। वे भी एक श्याम और दूसरे गौर वर्ण के हैं, उनके भी सब अङ्ग बहुत सुन्दर हैं। जो लोग उन्हें देख आए हैं, वे सब यही कहते हैं॥2॥

कहा एक मैं आजु निहारे। जनु बिरञ्चि निज हाथ सँवारे॥
भरतु राम ही की अनुहारी। सहसा लखि न सकहिं नर नारी॥3॥

मूल

कहा एक मैं आजु निहारे। जनु बिरञ्चि निज हाथ सँवारे॥
भरतु राम ही की अनुहारी। सहसा लखि न सकहिं नर नारी॥3॥

भावार्थ

एक ने कहा- मैन्ने आज ही उन्हें देखा है, इतने सुन्दर हैं, मानो ब्रह्माजी ने उन्हें अपने हाथों सँवारा है। भरत तो श्री रामचन्द्रजी की ही शकल-सूरत के हैं। स्त्री-पुरुष उन्हें सहसा पहचान नहीं सकते॥3॥

लखनु सत्रुसूदनु एकरूपा। नख सिख ते सब अङ्ग अनूपा॥
मन भावहिं मुख बरनि न जाहीं। उपमा कहुँ त्रिभुवन कोउ नाहीं॥4॥

मूल

लखनु सत्रुसूदनु एकरूपा। नख सिख ते सब अङ्ग अनूपा॥
मन भावहिं मुख बरनि न जाहीं। उपमा कहुँ त्रिभुवन कोउ नाहीं॥4॥

भावार्थ

लक्ष्मण और शत्रुघ्न दोनों का एक रूप है। दोनों के नख से शिखा तक सभी अङ्ग अनुपम हैं। मन को बडे अच्छे लगते हैं, पर मुख से उनका वर्णन नहीं हो सकता। उनकी उपमा के योग्य तीनों लोकों में कोई नहीं है॥4॥

03 छन्द

विश्वास-प्रस्तुतिः

उपमा न कोउ कह दास तुलसी कतहुँ कबि कोबिद कहैं।
बल बिनय बिद्या सील सोभा सिन्धु इन्ह से एइ अहैं॥
पुर नारि सकल पसारि अञ्चल बिधिहि बचन सुनावहीं॥
ब्याहिअहुँ चारिउ भाइ एहिं पुर हम सुमङ्गल गावहीं॥

मूल

उपमा न कोउ कह दास तुलसी कतहुँ कबि कोबिद कहैं।
बल बिनय बिद्या सील सोभा सिन्धु इन्ह से एइ अहैं॥
पुर नारि सकल पसारि अञ्चल बिधिहि बचन सुनावहीं॥
ब्याहिअहुँ चारिउ भाइ एहिं पुर हम सुमङ्गल गावहीं॥

भावार्थ

दास तुलसी कहता है कवि और कोविद (विद्वान) कहते हैं, इनकी उपमा कहीं कोई नहीं है।

बल, विनय, विद्या, शील और शोभा के समुद्र इनके समान ये ही हैं। जनकपुर की सब स्त्रियाँ आँचल फैलाकर विधाता को यह वचन (विनती) सुनाती हैं कि चारों भाइयों का विवाह इसी नगर में हो और हम सब सुन्दर मङ्गल गावें।