01 दोहा
विश्वास-प्रस्तुतिः
भूप बिलोके जबहिं मुनि आवत सुतन्ह समेत।
उठे हरषि सुखसिन्धु महुँ चले थाह सी लेत॥307॥
मूल
भूप बिलोके जबहिं मुनि आवत सुतन्ह समेत।
उठे हरषि सुखसिन्धु महुँ चले थाह सी लेत॥307॥
भावार्थ
जब राजा दशरथजी ने पुत्रों सहित मुनि को आते देखा, तब वे हर्षित होकर उठे और सुख के समुद्र में थाह सी लेते हुए चले॥307॥
02 चौपाई
मुनिहि दण्डवत कीन्ह महीसा। बार बार पद रज धरि सीसा॥
कौसिक राउ लिए उर लाई। कहि असीस पूछी कुसलाई॥1॥
मूल
मुनिहि दण्डवत कीन्ह महीसा। बार बार पद रज धरि सीसा॥
कौसिक राउ लिए उर लाई। कहि असीस पूछी कुसलाई॥1॥
भावार्थ
पृथ्वीपति दशरथजी ने मुनि की चरणधूलि को बारम्बार सिर पर चढाकर उनको दण्डवत् प्रणाम किया। विश्वामित्रजी ने राजा को उठाकर हृदय से लगा लिया और आशीर्वाद देकर कुशल पूछी॥1॥
पुनि दण्डवत करत दोउ भाई। देखि नृपति उर सुखु न समाई॥
सुत हियँ लाइ दुसह दुख मेटे। मृतक सरीर प्रान जनु भेण्टे॥2॥
मूल
पुनि दण्डवत करत दोउ भाई। देखि नृपति उर सुखु न समाई॥
सुत हियँ लाइ दुसह दुख मेटे। मृतक सरीर प्रान जनु भेण्टे॥2॥
भावार्थ
फिर दोनों भाइयों को दण्डवत् प्रणाम करते देखकर राजा के हृदय में सुख समाया नहीं। पुत्रों को (उठाकर) हृदय से लगाकर उन्होन्ने अपने (वियोगजनित) दुःसह दुःख को मिटाया। मानो मृतक शरीर को प्राण मिल गए हों॥2॥
पुनि बसिष्ठ पद सिर तिन्ह नाए। प्रेम मुदित मुनिबर उर लाए॥
बिप्र बृन्द बन्दे दुहुँ भाईं। मनभावती असीसें पाईं॥3॥
मूल
पुनि बसिष्ठ पद सिर तिन्ह नाए। प्रेम मुदित मुनिबर उर लाए॥
बिप्र बृन्द बन्दे दुहुँ भाईं। मनभावती असीसें पाईं॥3॥
भावार्थ
फिर उन्होन्ने वशिष्ठजी के चरणों में सिर नवाया। मुनि श्रेष्ठ ने प्रेम के आनन्द में उन्हें हृदय से लगा लिया। दोनों भाइयों ने सब ब्राह्मणों की वन्दना की और मनभाए आशीर्वाद पाए॥3॥
भरत सहानुज कीन्ह प्रनामा। लिए उठाइ लाइ उर रामा॥
हरषे लखन देखि दोउ भ्राता। मिले प्रेम परिपूरित गाता॥4॥
मूल
भरत सहानुज कीन्ह प्रनामा। लिए उठाइ लाइ उर रामा॥
हरषे लखन देखि दोउ भ्राता। मिले प्रेम परिपूरित गाता॥4॥
भावार्थ
भरतजी ने छोटे भाई शत्रुघ्न सहित श्री रामचन्द्रजी को प्रणाम किया। श्री रामजी ने उन्हें उठाकर हृदय से लगा लिया। लक्ष्मणजी दोनों भाइयों को देखकर हर्षित हुए और प्रेम से परिपूर्ण हुए शरीर से उनसे मिले॥4॥