306

01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

सिधि सब सिय आयसु अकनि गईं जहाँ जनवास।
लिएँ सम्पदा सकल सुख सुरपुर भोग बिलास॥306॥

मूल

सिधि सब सिय आयसु अकनि गईं जहाँ जनवास।
लिएँ सम्पदा सकल सुख सुरपुर भोग बिलास॥306॥

भावार्थ

सीताजी की आज्ञा सुनकर सब सिद्धियाँ जहाँ जनवासा था, वहाँ सारी सम्पदा, सुख और इन्द्रपुरी के भोग-विलास को लिए हुए गईं॥306॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

निज निज बास बिलोकि बराती। सुर सुख सकल सुलभ सब भाँती॥
बिभव भेद कछु कोउ न जाना। सकल जनक कर करहिं बखाना॥1॥

मूल

निज निज बास बिलोकि बराती। सुर सुख सकल सुलभ सब भाँती॥
बिभव भेद कछु कोउ न जाना। सकल जनक कर करहिं बखाना॥1॥

भावार्थ

बारातियों ने अपने-अपने ठहरने के स्थान देखे तो वहाँ देवताओं के सब सुखों को सब प्रकार से सुलभ पाया। इस ऐश्वर्य का कुछ भी भेद कोई जान न सका। सब जनकजी की बडाई कर रहे हैं॥1॥

सिय महिमा रघुनायक जानी। हरषे हृदयँ हेतु पहिचानी॥
पितु आगमनु सुनत दोउ भाई। हृदयँ न अति आनन्दु अमाई॥2॥

मूल

सिय महिमा रघुनायक जानी। हरषे हृदयँ हेतु पहिचानी॥
पितु आगमनु सुनत दोउ भाई। हृदयँ न अति आनन्दु अमाई॥2॥

भावार्थ

श्री रघुनाथजी यह सब सीताजी की महिमा जानकर और उनका प्रेम पहचानकर हृदय में हर्षित हुए। पिता दशरथजी के आने का समाचार सुनकर दोनों भाइयों के हृदय में महान आनन्द समाता न था॥2॥

सकुचन्ह कहि न सकत गुरु पाहीं। पितु दरसन लालचु मन माहीं॥
बिस्वामित्र बिनय बडि देखी। उपजा उर सन्तोषु बिसेषी॥3॥

मूल

सकुचन्ह कहि न सकत गुरु पाहीं। पितु दरसन लालचु मन माहीं॥
बिस्वामित्र बिनय बडि देखी। उपजा उर सन्तोषु बिसेषी॥3॥

भावार्थ

सङ्कोचवश वे गुरु विश्वामित्रजी से कह नहीं सकते थे, परन्तु मन में पिताजी के दर्शनों की लालसा थी। विश्वामित्रजी ने उनकी बडी नम्रता देखी, तो उनके हृदय में बहुत सन्तोष उत्पन्न हुआ॥3॥

हरषि बन्धु दोउ हृदयँ लगाए। पुलक अङ्ग अम्बक जल छाए॥
चले जहाँ दसरथु जनवासे। मनहुँ सरोबर तकेउ पिआसे॥4॥

मूल

हरषि बन्धु दोउ हृदयँ लगाए। पुलक अङ्ग अम्बक जल छाए॥
चले जहाँ दसरथु जनवासे। मनहुँ सरोबर तकेउ पिआसे॥4॥

भावार्थ

प्रसन्न होकर उन्होन्ने दोनों भाइयों को हृदय से लगा लिया। उनका शरीर पुलकित हो गया और नेत्रों में (प्रेमाश्रुओं का) जल भर आया। वे उस जनवासे को चले, जहाँ दशरथजी थे। मानो सरोवर प्यासे की ओर लक्ष्य करके चला हो॥4॥