295

01 सोरठा

जाचक लिए हँकारि दीन्हि निछावरि कोटि बिधि।
चिरु जीवहुँ सुत चारि चक्रबर्ति दसरत्थ के॥295॥

मूल

जाचक लिए हँकारि दीन्हि निछावरि कोटि बिधि।
चिरु जीवहुँ सुत चारि चक्रबर्ति दसरत्थ के॥295॥

भावार्थ

फिर भिक्षुकों को बुलाकर करोडों प्रकार की निछावरें उनको दीं। ‘चक्रवर्ती महाराज दशरथ के चारों पुत्र चिरञ्जीवी हों’॥295॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

कहत चले पहिरें पट नाना। हरषि हने गहगहे निसाना॥
समाचार सब लोगन्ह पाए। लागे घर-घर होन बधाए॥1॥

मूल

कहत चले पहिरें पट नाना। हरषि हने गहगहे निसाना॥
समाचार सब लोगन्ह पाए। लागे घर-घर होन बधाए॥1॥

भावार्थ

यों कहते हुए वे अनेक प्रकार के सुन्दर वस्त्र पहन-पहनकर चले। आनन्दित होकर नगाडे वालों ने बडे जोर से नगाडों पर चोट लगाई। सब लोगों ने जब यह समाचार पाया, तब घर-घर बधावे होने लगे॥1॥

भुवन चारिदस भरा उछाहू। जनकसुता रघुबीर बिआहू॥
सुनि सुभ कथा लोग अनुरागे। मग गृह गलीं सँवारन लागे॥2॥

मूल

भुवन चारिदस भरा उछाहू। जनकसुता रघुबीर बिआहू॥
सुनि सुभ कथा लोग अनुरागे। मग गृह गलीं सँवारन लागे॥2॥

भावार्थ

चौदहों लोकों में उत्साह भर गया कि जानकीजी और श्री रघुनाथजी का विवाह होगा। यह शुभ समाचार पाकर लोग प्रेममग्न हो गए और रास्ते, घर तथा गलियाँ सजाने लगे॥2॥

जद्यपि अवध सदैव सुहावनि। रामपुरी मङ्गलमय पावनि॥
तदपि प्रीति कै प्रीति सुहाई। मङ्गल रचना रची बनाई॥3॥

मूल

जद्यपि अवध सदैव सुहावनि। रामपुरी मङ्गलमय पावनि॥
तदपि प्रीति कै प्रीति सुहाई। मङ्गल रचना रची बनाई॥3॥

भावार्थ

यद्यपि अयोध्या सदा सुहावनी है, क्योङ्कि वह श्री रामजी की मङ्गलमयी पवित्र पुरी है, तथापि प्रीति पर प्रीति होने से वह सुन्दर मङ्गल रचना से सजाई गई॥3॥

ध्वज पताक पट चामर चारू। छावा परम बिचित्र बजारू॥
कनक कलस तोरन मनि जाला। हरद दूब दधि अच्छत माला॥4॥

मूल

ध्वज पताक पट चामर चारू। छावा परम बिचित्र बजारू॥
कनक कलस तोरन मनि जाला। हरद दूब दधि अच्छत माला॥4॥

भावार्थ

ध्वजा, पताका, परदे और सुन्दर चँवरों से सारा बाजा बहुत ही अनूठा छाया हुआ है। सोने के कलश, तोरण, मणियों की झालरें, हलदी, दूब, दही, अक्षत और मालाओं से-॥4॥