01 दोहा
विश्वास-प्रस्तुतिः
चलहु बेगि सुनि गुर बचन भलेहिं नाथ सिरु नाई।
भूपति गवने भवन तब दूतन्ह बासु देवाइ॥294॥
मूल
चलहु बेगि सुनि गुर बचन भलेहिं नाथ सिरु नाई।
भूपति गवने भवन तब दूतन्ह बासु देवाइ॥294॥
भावार्थ
और जल्दी चलो। गुरुजी के ऐसे वचन सुनकर, हे नाथ! बहुत अच्छा कहकर और सिर नवाकर तथा दूतों को डेरा दिलवाकर राजा महल में गए॥294॥
02 चौपाई
विश्वास-प्रस्तुतिः
राजा सबु रनिवास बोलाई। जनक पत्रिका बाचि सुनाई॥
सुनि सन्देसु सकल हरषानीं। अपर कथा सब भूप बखानीं॥1॥
मूल
राजा सबु रनिवास बोलाई। जनक पत्रिका बाचि सुनाई॥
सुनि सन्देसु सकल हरषानीं। अपर कथा सब भूप बखानीं॥1॥
भावार्थ
राजा ने सारे रनिवास को बुलाकर जनकजी की पत्रिका बाँचकर सुनाई। समाचार सुनकर सब रानियाँ हर्ष से भर गईं। राजा ने फिर दूसरी सब बातों का (जो दूतों के मुख से सुनी थीं) वर्णन किया॥1॥
प्रेम प्रफुल्लित राजहिं रानी। मनहुँ सिखिनि सुनि बारिद बानी॥
मुदित असीस देहिं गुर नारीं। अति आनन्द मगन महतारीं॥2॥
मूल
प्रेम प्रफुल्लित राजहिं रानी। मनहुँ सिखिनि सुनि बारिद बानी॥
मुदित असीस देहिं गुर नारीं। अति आनन्द मगन महतारीं॥2॥
भावार्थ
प्रेम में प्रफुल्लित हुई रानियाँ ऐसी सुशोभित हो रही हैं, जैसे मोरनी बादलों की गरज सुनकर प्रफुल्लित होती हैं। बडी-बूढी (अथवा गुरुओं की) स्त्रियाँ प्रसन्न होकर आशीर्वाद दे रही हैं। माताएँ अत्यन्त आनन्द में मग्न हैं॥2॥
लेहिं परस्पर अति प्रिय पाती। हृदयँ लगाई जुडावहिं छाती॥
राम लखन कै कीरति करनी। बारहिं बार भूपबर बरनी॥3॥
मूल
लेहिं परस्पर अति प्रिय पाती। हृदयँ लगाई जुडावहिं छाती॥
राम लखन कै कीरति करनी। बारहिं बार भूपबर बरनी॥3॥
भावार्थ
उस अत्यन्त प्रिय पत्रिका को आपस में लेकर सब हृदय से लगाकर छाती शीतल करती हैं। राजाओं में श्रेष्ठ दशरथजी ने श्री राम-लक्ष्मण की कीर्ति और करनी का बारम्बार वर्णन किया॥3॥
मुनि प्रसादु कहि द्वार सिधाए। रानिन्ह तब महिदेव बोलाए॥
दिए दान आनन्द समेता। चले बिप्रबर आसिष देता॥4॥
मूल
मुनि प्रसादु कहि द्वार सिधाए। रानिन्ह तब महिदेव बोलाए॥
दिए दान आनन्द समेता। चले बिप्रबर आसिष देता॥4॥
भावार्थ
‘यह सब मुनि की कृपा है’ ऐसा कहकर वे बाहर चले आए। तब रानियों ने ब्राह्मणों को बुलाया और आनन्द सहित उन्हें दान दिए। श्रेष्ठ ब्राह्मण आशीर्वाद देते हुए चले॥4॥