292

01 दोहा

तहाँ राम रघुबंसमनि सुनिअ महा महिपाल।
भञ्जेउ चाप प्रयास बिनु जिमि गज पङ्कज नाल॥292॥

मूल

तहाँ राम रघुबंसमनि सुनिअ महा महिपाल।
भञ्जेउ चाप प्रयास बिनु जिमि गज पङ्कज नाल॥292॥

भावार्थ

हे महाराज! सुनिए, वहाँ (जहाँ ऐसे-ऐसे योद्धा हार मान गए) रघुवंशमणि श्री रामचन्द्रजी ने बिना ही प्रयास शिवजी के धनुष को वैसे ही तोड डाला जैसे हाथी कमल की डण्डी को तोड डालता है!॥292॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुनि सरोष भृगुनायकु आए। बहुत भाँति तिन्ह आँखि देखाए॥
देखि राम बलु निज धनु दीन्हा। करिबहु बिनय गवनु बन कीन्हा॥1॥

मूल

सुनि सरोष भृगुनायकु आए। बहुत भाँति तिन्ह आँखि देखाए॥
देखि राम बलु निज धनु दीन्हा। करिबहु बिनय गवनु बन कीन्हा॥1॥

भावार्थ

धनुष टूटने की बात सुनकर परशुरामजी क्रोध में भरे आए और उन्होन्ने बहुत प्रकार से आँखें दिखलाईं। अन्त में उन्होन्ने भी श्री रामचन्द्रजी का बल देखकर उन्हें अपना धनुष दे दिया और बहुत प्रकार से विनती करके वन को गमन किया॥1॥

राजन रामु अतुलबल जैसें। तेज निधान लखनु पुनि तैसें॥
कम्पहिं भूप बिलोकत जाकें। जिमि गज हरि किसोर के ताकें॥2॥

मूल

राजन रामु अतुलबल जैसें। तेज निधान लखनु पुनि तैसें॥
कम्पहिं भूप बिलोकत जाकें। जिमि गज हरि किसोर के ताकें॥2॥

भावार्थ

हे राजन्‌! जैसे श्री रामचन्द्रजी अतुलनीय बली हैं, वैसे ही तेज निधान फिर लक्ष्मणजी भी हैं, जिनके देखने मात्र से राजा लोग ऐसे काँप उठते थे, जैसे हाथी सिंह के बच्चे के ताकने से काँप उठते हैं॥2॥

देव देखि तव बालक दोऊ। अब न आँखि तर आवत कोऊ ॥
दूत बचन रचना प्रिय लागी। प्रेम प्रताप बीर रस पागी॥3॥

मूल

देव देखि तव बालक दोऊ। अब न आँखि तर आवत कोऊ ॥
दूत बचन रचना प्रिय लागी। प्रेम प्रताप बीर रस पागी॥3॥

भावार्थ

हे देव! आपके दोनों बालकों को देखने के बाद अब आँखों के नीचे कोई आता ही नहीं (हमारी दृष्टि पर कोई चढता ही नहीं)। प्रेम, प्रताप और वीर रस में पगी हुई दूतों की वचन रचना सबको बहुत प्रिय लगी॥3॥

सभा समेत राउ अनुरागे। दूतन्ह देन निछावरि लागे॥
कहि अनीति ते मूदहिं काना। धरमु बिचारि सबहिं सुखु माना॥4॥

मूल

सभा समेत राउ अनुरागे। दूतन्ह देन निछावरि लागे॥
कहि अनीति ते मूदहिं काना। धरमु बिचारि सबहिं सुखु माना॥4॥

भावार्थ

सभा सहित राजा प्रेम में मग्न हो गए और दूतों को निछावर देने लगे। (उन्हें निछावर देते देखकर) यह नीति विरुद्ध है, ऐसा कहकर दूत अपने हाथों से कान मूँदने लगे। धर्म को विचारकर (उनका धर्मयुक्त बर्ताव देखकर) सभी ने सुख माना॥4॥