288

01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

सौरभ पल्लव सुभग सुठि किए नीलमनि कोरि।
हेम बौर मरकत घवरि लसत पाटमय डोरि॥288॥

मूल

सौरभ पल्लव सुभग सुठि किए नीलमनि कोरि।
हेम बौर मरकत घवरि लसत पाटमय डोरि॥288॥

भावार्थ

नील मणि को कोरकर अत्यन्त सुन्दर आम के पत्ते बनाए। सोने के बौर (आम के फूल) और रेशम की डोरी से बँधे हुए पन्ने के बने फलों के गुच्छे सुशोभित हैं॥288॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

रचे रुचिर बर बन्दनिवारे। मनहुँ मनोभवँ फन्द सँवारे॥
मङ्गल कलश अनेक बनाए। ध्वज पताक पट चमर सुहाए॥1॥

मूल

रचे रुचिर बर बन्दनिवारे। मनहुँ मनोभवँ फन्द सँवारे॥
मङ्गल कलश अनेक बनाए। ध्वज पताक पट चमर सुहाए॥1॥

भावार्थ

ऐसे सुन्दर और उत्तम बन्दनवार बनाए मानो कामदेव ने फन्दे सजाए हों। अनेकों मङ्गल कलश और सुन्दर ध्वजा, पताका, परदे और चँवर बनाए॥1॥

दीप मनोहर मनिमय नाना। जाइ न बरनि बिचित्र बिताना॥
जेहिं मण्डप दुलहिनि बैदेही। सो बरनै असि मति कबि केही॥2॥

मूल

दीप मनोहर मनिमय नाना। जाइ न बरनि बिचित्र बिताना॥
जेहिं मण्डप दुलहिनि बैदेही। सो बरनै असि मति कबि केही॥2॥

भावार्थ

जिसमें मणियों के अनेकों सुन्दर दीपक हैं, उस विचित्र मण्डप का तो वर्णन ही नहीं किया जा सकता, जिस मण्डप में श्री जानकीजी दुलहिन होङ्गी, किस कवि की ऐसी बुद्धि है जो उसका वर्णन कर सके॥2॥

दूलहु रामु रूप गुन सागर। सो बितानु तिहुँ लोग उजागर॥
जनक भवन कै सोभा जैसी। गृह गृह प्रति पुर देखिअ तैसी॥3॥

मूल

दूलहु रामु रूप गुन सागर। सो बितानु तिहुँ लोग उजागर॥
जनक भवन कै सोभा जैसी। गृह गृह प्रति पुर देखिअ तैसी॥3॥

भावार्थ

जिस मण्डप में रूप और गुणों के समुद्र श्री रामचन्द्रजी दूल्हे होङ्गे, वह मण्डप तीनों लोकों में प्रसिद्ध होना ही चाहिए। जनकजी के महल की जैसी शोभा है, वैसी ही शोभा नगर के प्रत्येक घर की दिखाई देती है॥3॥

जेहिं तेरहुति तेहि समय निहारी। तेहि लघु लगहिं भुवन दस चारी॥
जो सम्पदा नीच गृह सोहा। सो बिलोकि सुरनायक मोहा॥4॥

मूल

जेहिं तेरहुति तेहि समय निहारी। तेहि लघु लगहिं भुवन दस चारी॥
जो सम्पदा नीच गृह सोहा। सो बिलोकि सुरनायक मोहा॥4॥

भावार्थ

उस समय जिसने तिरहुत को देखा, उसे चौदह भुवन तुच्छ जान पडे। जनकपुर में नीच के घर भी उस समय जो सम्पदा सुशोभित थी, उसे देखकर इन्द्र भी मोहित हो जाता था॥4॥