282

01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

बार बार मुनि बिप्रबर कहा राम सन राम।
बोले भृगुपति सरुष हसि तहूँ बन्धू सम बाम॥282॥

मूल

बार बार मुनि बिप्रबर कहा राम सन राम।
बोले भृगुपति सरुष हसि तहूँ बन्धू सम बाम॥282॥

भावार्थ

श्री रामचन्द्रजी ने परशुरामजी को बार-बार ‘मुनि’ और ‘विप्रवर’ कहा। तब भृगुपति (परशुरामजी) कुपित होकर (अथवा क्रोध की हँसी हँसकर) बोले- तू भी अपने भाई के समान ही टेढा है॥282॥

निपटहिं द्विज करि जानहि मोही। मैं जस बिप्र सुनावउँ तोही॥
चाप सुवा सर आहुति जानू। कोपु मोर अति घोर कृसानू॥1॥

मूल

निपटहिं द्विज करि जानहि मोही। मैं जस बिप्र सुनावउँ तोही॥
चाप सुवा सर आहुति जानू। कोपु मोर अति घोर कृसानू॥1॥

भावार्थ

तू मुझे निरा ब्राह्मण ही समझता है? मैं जैसा विप्र हूँ, तुझे सुनाता हूँ। धनुष को सु्रवा, बाण को आहुति और मेरे क्रोध को अत्यन्त भयङ्कर अग्नि जान॥1॥

समिधि सेन चतुरङ्ग सुहाई। महा महीप भए पसु आई॥
मैं एहिं परसु काटि बलि दीन्हे। समर जग्य जप कोटिन्ह कीन्हे॥2॥

मूल

समिधि सेन चतुरङ्ग सुहाई। महा महीप भए पसु आई॥
मैं एहिं परसु काटि बलि दीन्हे। समर जग्य जप कोटिन्ह कीन्हे॥2॥

भावार्थ

चतुरङ्गिणी सेना सुन्दर समिधाएँ (यज्ञ में जलाई जाने वाली लकडियाँ) हैं। बडे-बडे राजा उसमें आकर बलि के पशु हुए हैं, जिनको मैन्ने इसी फरसे से काटकर बलि दिया है। ऐसे करोडों जपयुक्त रणयज्ञ मैन्ने किए हैं (अर्थात जैसे मन्त्रोच्चारण पूर्वक ‘स्वाहा’ शब्द के साथ आहुति दी जाती है, उसी प्रकार मैन्ने पुकार-पुकार कर राजाओं की बलि दी है)॥2॥

मोर प्रभाउ बिदित नहिं तोरें। बोलसि निदरि बिप्र के भोरें॥
भञ्जेउ चापु दापु बड बाढा। अहमिति मनहुँ जीति जगु ठाढा॥3॥

मूल

मोर प्रभाउ बिदित नहिं तोरें। बोलसि निदरि बिप्र के भोरें॥
भञ्जेउ चापु दापु बड बाढा। अहमिति मनहुँ जीति जगु ठाढा॥3॥

भावार्थ

मेरा प्रभाव तुझे मालूम नहीं है, इसी से तू ब्राह्मण के धोखे मेरा निरादर करके बोल रहा है। धनुष तोड डाला, इससे तेरा घमण्ड बहुत बढ गया है। ऐसा अहङ्कार है, मानो संसार को जीतकर खडा है॥3॥

राम कहा मुनि कहहु बिचारी। रिस अति बडि लघु चूक हमारी॥
छुअतहिं टूट पिनाक पुराना। मैं केहि हेतु करौं अभिमाना॥4॥

मूल

राम कहा मुनि कहहु बिचारी। रिस अति बडि लघु चूक हमारी॥
छुअतहिं टूट पिनाक पुराना। मैं केहि हेतु करौं अभिमाना॥4॥

भावार्थ

श्री रामचन्द्रजी ने कहा- हे मुनि! विचारकर बोलिए। आपका क्रोध बहुत बडा है और मेरी भूल बहुत छोटी है। पुराना धनुष था, छूते ही टूट गया। मैं किस कारण अभिमान करूँ?॥4॥