01 दोहा
परसुरामु तब राम प्रति बोले उर अति क्रोधु।
सम्भु सरासनु तोरि सठ करसि हमार प्रबोधु॥280॥
मूल
परसुरामु तब राम प्रति बोले उर अति क्रोधु।
सम्भु सरासनु तोरि सठ करसि हमार प्रबोधु॥280॥
भावार्थ
तब परशुरामजी हृदय में अत्यन्त क्रोध भरकर श्री रामजी से बोले- अरे शठ! तू शिवजी का धनुष तोडकर उलटा हमीं को ज्ञान सिखाता है॥280॥
02 चौपाई
विश्वास-प्रस्तुतिः
बन्धु कहइ कटु सम्मत तोरें। तू छल बिनय करसि कर जोरें॥
करु परितोषु मोर सङ्ग्रामा। नाहिं त छाड कहाउब रामा॥1॥
मूल
बन्धु कहइ कटु सम्मत तोरें। तू छल बिनय करसि कर जोरें॥
करु परितोषु मोर सङ्ग्रामा। नाहिं त छाड कहाउब रामा॥1॥
भावार्थ
तेरा यह भाई तेरी ही सम्मति से कटु वचन बोलता है और तू छल से हाथ जोडकर विनय करता है। या तो युद्ध में मेरा सन्तोष कर, नहीं तो राम कहलाना छोड दे॥1॥
छलु तजि करहि समरु सिवद्रोही। बन्धु सहित न त मारउँ तोही॥
भृगुपति बकहिं कुठार उठाएँ। मन मुसुकाहिं रामु सिर नाएँ॥2॥
मूल
छलु तजि करहि समरु सिवद्रोही। बन्धु सहित न त मारउँ तोही॥
भृगुपति बकहिं कुठार उठाएँ। मन मुसुकाहिं रामु सिर नाएँ॥2॥
भावार्थ
अरे शिवद्रोही! छल त्यागकर मुझसे युद्ध कर। नहीं तो भाई सहित तुझे मार डालूँगा। इस प्रकार परशुरामजी कुठार उठाए बक रहे हैं और श्री रामचन्द्रजी सिर झुकाए मन ही मन मुस्कुरा रहे हैं॥2॥
गुनह लखन कर हम पर रोषू। कतहुँ सुधाइहु ते बड दोषू॥
टेढ जानि सब बन्दइ काहू। बक्र चन्द्रमहि ग्रसइ न राहू॥3॥
मूल
गुनह लखन कर हम पर रोषू। कतहुँ सुधाइहु ते बड दोषू॥
टेढ जानि सब बन्दइ काहू। बक्र चन्द्रमहि ग्रसइ न राहू॥3॥
भावार्थ
(श्री रामचन्द्रजी ने मन ही मन कहा-) गुनाह (दोष) तो लक्ष्मण का और क्रोध मुझ पर करते हैं। कहीं-कहीं सीधेपन में भी बडा दोष होता है। टेढा जानकर सब लोग किसी की भी वन्दना करते हैं, टेढे चन्द्रमा को राहु भी नहीं ग्रसता॥3॥
राम कहेउ रिस तजिअ मुनीसा। कर कुठारु आगें यह सीसा॥
जेहिं रिस जाइ करिअ सोइ स्वामी। मोहि जानिअ आपन अनुगामी॥4॥
मूल
राम कहेउ रिस तजिअ मुनीसा। कर कुठारु आगें यह सीसा॥
जेहिं रिस जाइ करिअ सोइ स्वामी। मोहि जानिअ आपन अनुगामी॥4॥
भावार्थ
श्री रामचन्द्रजी ने (प्रकट) कहा- हे मुनीश्वर! क्रोध छोडिए। आपके हाथ में कुठार है और मेरा यह सिर आगे है, जिस प्रकार आपका क्रोध जाए, हे स्वामी! वही कीजिए। मुझे अपना अनुचर (दास) जानिए॥4॥