278

01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुनि लछिमन बिहसे बहुरि नयन तरेरे राम।
गुर समीप गवने सकुचि परिहरि बानी बाम॥278॥

मूल

सुनि लछिमन बिहसे बहुरि नयन तरेरे राम।
गुर समीप गवने सकुचि परिहरि बानी बाम॥278॥

भावार्थ

यह सुनकर लक्ष्मणजी फिर हँसे। तब श्री रामचन्द्रजी ने तिरछी नजर से उनकी ओर देखा, जिससे लक्ष्मणजी सकुचाकर, विपरीत बोलना छोडकर, गुरुजी के पास चले गए॥278॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

अति बिनीत मृदु सीतल बानी। बोले रामु जोरि जुग पानी॥
सुनहु नाथ तुम्ह सहज सुजाना। बालक बचनु करिअ नहिं काना॥1॥

मूल

अति बिनीत मृदु सीतल बानी। बोले रामु जोरि जुग पानी॥
सुनहु नाथ तुम्ह सहज सुजाना। बालक बचनु करिअ नहिं काना॥1॥

भावार्थ

श्री रामचन्द्रजी दोनों हाथ जोडकर अत्यन्त विनय के साथ कोमल और शीतल वाणी बोले- हे नाथ! सुनिए, आप तो स्वभाव से ही सुजान हैं। आप बालक के वचन पर कान न दीजिए (उसे सुना-अनसुना कर दीजिए)॥1॥

बररै बालकु एकु सुभाऊ। इन्हहि न सन्त बिदूषहिं काऊ ॥
तेहिं नाहीं कछु काज बिगारा। अपराधी मैं नाथ तुम्हारा॥2॥

मूल

बररै बालकु एकु सुभाऊ। इन्हहि न सन्त बिदूषहिं काऊ ॥
तेहिं नाहीं कछु काज बिगारा। अपराधी मैं नाथ तुम्हारा॥2॥

भावार्थ

बर्रै और बालक का एक स्वभाव है। सन्तजन इन्हें कभी दोष नहीं लगाते। फिर उसने (लक्ष्मण ने) तो कुछ काम भी नहीं बिगाडा है, हे नाथ! आपका अपराधी तो मैं हूँ॥2॥

कृपा कोपु बधु बँधब गोसाईं। मो पर करिअ दास की नाईं॥
कहिअ बेगि जेहि बिधि रिस जाई। मुनिनायक सोइ करौं उपाई॥3॥

मूल

कृपा कोपु बधु बँधब गोसाईं। मो पर करिअ दास की नाईं॥
कहिअ बेगि जेहि बिधि रिस जाई। मुनिनायक सोइ करौं उपाई॥3॥

भावार्थ

अतः हे स्वामी! कृपा, क्रोध, वध और बन्धन, जो कुछ करना हो, दास की तरह (अर्थात दास समझकर) मुझ पर कीजिए। जिस प्रकार से शीघ्र आपका क्रोध दूर हो। हे मुनिराज! बताइए, मैं वही उपाय करूँ॥3॥

कह मुनि राम जाइ रिस कैसें। अजहुँ अनुज तव चितव अनैसें॥
एहि कें कण्ठ कुठारु न दीन्हा। तौ मैं कहा कोपु करि कीन्हा॥4॥

मूल

कह मुनि राम जाइ रिस कैसें। अजहुँ अनुज तव चितव अनैसें॥
एहि कें कण्ठ कुठारु न दीन्हा। तौ मैं कहा कोपु करि कीन्हा॥4॥

भावार्थ

मुनि ने कहा- हे राम! क्रोध कैसे जाए, अब भी तेरा छोटा भाई टेढा ही ताक रहा है। इसकी गर्दन पर मैन्ने कुठार न चलाया, तो क्रोध करके किया ही क्या?॥4॥