01 दोहा
लखन कहेउ हँसि सुनहु मुनि क्रोधु पाप कर मूल।
जेहि बस जन अनुचित करहिं चरहिं बिस्व प्रतिकूल॥277॥
मूल
लखन कहेउ हँसि सुनहु मुनि क्रोधु पाप कर मूल।
जेहि बस जन अनुचित करहिं चरहिं बिस्व प्रतिकूल॥277॥
भावार्थ
लक्ष्मणजी ने हँसकर कहा- हे मुनि! सुनिए, क्रोध पाप का मूल है, जिसके वश में होकर मनुष्य अनुचित कर्म कर बैठते हैं और विश्वभर के प्रतिकूल चलते (सबका अहित करते) हैं॥277॥
02 चौपाई
विश्वास-प्रस्तुतिः
मैं तुम्हार अनुचर मुनिराया। परिहरि कोपु करिअ अब दाया॥
टूट चाप नहिं जुरिहि रिसाने। बैठिअ होइहिं पाय पिराने॥1॥
मूल
मैं तुम्हार अनुचर मुनिराया। परिहरि कोपु करिअ अब दाया॥
टूट चाप नहिं जुरिहि रिसाने। बैठिअ होइहिं पाय पिराने॥1॥
भावार्थ
हे मुनिराज! मैं आपका दास हूँ। अब क्रोध त्यागकर दया कीजिए। टूटा हुआ धनुष क्रोध करने से जुड नहीं जाएगा। खडे-खडे पैर दुःखने लगे होङ्गे, बैठ जाइए॥1॥
जौं अति प्रिय तौ करिअ उपाई। जोरिअ कोउ बड गुनी बोलाई॥
बोलत लखनहिं जनकु डेराहीं। मष्ट करहु अनुचित भल नाहीं॥2॥
मूल
जौं अति प्रिय तौ करिअ उपाई। जोरिअ कोउ बड गुनी बोलाई॥
बोलत लखनहिं जनकु डेराहीं। मष्ट करहु अनुचित भल नाहीं॥2॥
भावार्थ
यदि धनुष अत्यन्त ही प्रिय हो, तो कोई उपाय किया जाए और किसी बडे गुणी (कारीगर) को बुलाकर जुडवा दिया जाए। लक्ष्मणजी के बोलने से जनकजी डर जाते हैं और कहते हैं- बस, चुप रहिए, अनुचित बोलना अच्छा नहीं॥2॥
थर थर काँपहिं पुर नर नारी। छोट कुमार खोट बड भारी॥
भृगुपति सुनि सुनि निरभय बानी। रिस तन जरइ होई बल हानी॥3॥
मूल
थर थर काँपहिं पुर नर नारी। छोट कुमार खोट बड भारी॥
भृगुपति सुनि सुनि निरभय बानी। रिस तन जरइ होई बल हानी॥3॥
भावार्थ
जनकपुर के स्त्री-पुरुष थर-थर काँप रहे हैं (और मन ही मन कह रहे हैं कि) छोटा कुमार बडा ही खोटा है। लक्ष्मणजी की निर्भय वाणी सुन-सुनकर परशुरामजी का शरीर क्रोध से जला जा रहा है और उनके बल की हानि हो रही है (उनका बल घट रहा है)॥3॥
बोले रामहि देइ निहोरा। बचउँ बिचारि बन्धु लघु तोरा॥
मनु मलीन तनु सुन्दर कैसें। बिष रस भरा कनक घटु जैसें॥4॥
मूल
बोले रामहि देइ निहोरा। बचउँ बिचारि बन्धु लघु तोरा॥
मनु मलीन तनु सुन्दर कैसें। बिष रस भरा कनक घटु जैसें॥4॥
भावार्थ
तब श्री रामचन्द्रजी पर एहसान जनाकर परशुरामजी बोले- तेरा छोटा भाई समझकर मैं इसे बचा रहा हूँ। यह मन का मैला और शरीर का कैसा सुन्दर है, जैसे विष के रस से भरा हुआ सोने का घडा!॥4॥