276

01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

लखन उतर आहुति सरिस भृगुबर कोपु कृसानु।
बढत देखि जल सम बचन बोले रघुकुलभानु॥276॥

मूल

लखन उतर आहुति सरिस भृगुबर कोपु कृसानु।
बढत देखि जल सम बचन बोले रघुकुलभानु॥276॥

भावार्थ

लक्ष्मणजी के उत्तर से, जो आहुति के समान थे, परशुरामजी के क्रोध रूपी अग्नि को बढते देखकर रघुकुल के सूर्य श्री रामचन्द्रजी जल के समान (शान्त करने वाले) वचन बोले-॥276॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

नाथ करहु बालक पर छोहु। सूध दूधमुख करिअ न कोहू॥
जौं पै प्रभु प्रभाउ कछु जाना। तौ कि बराबरि करत अयाना॥1॥

मूल

नाथ करहु बालक पर छोहु। सूध दूधमुख करिअ न कोहू॥
जौं पै प्रभु प्रभाउ कछु जाना। तौ कि बराबरि करत अयाना॥1॥

भावार्थ

हे नाथ ! बालक पर कृपा कीजिए। इस सीधे और दूधमुँहे बच्चे पर क्रोध न कीजिए। यदि यह प्रभु का (आपका) कुछ भी प्रभाव जानता, तो क्या यह बेसमझ आपकी बराबरी करता ?॥1॥

जौं लरिका कछु अचगरि करहीं। गुर पितु मातु मोद मन भरहीं॥
करिअ कृपा सिसु सेवक जानी। तुम्ह सम सील धीर मुनि ग्यानी॥2॥

मूल

जौं लरिका कछु अचगरि करहीं। गुर पितु मातु मोद मन भरहीं॥
करिअ कृपा सिसु सेवक जानी। तुम्ह सम सील धीर मुनि ग्यानी॥2॥

भावार्थ

बालक यदि कुछ चपलता भी करते हैं, तो गुरु, पिता और माता मन में आनन्द से भर जाते हैं। अतः इसे छोटा बच्चा और सेवक जानकर कृपा कीजिए। आप तो समदर्शी, सुशील, धीर और ज्ञानी मुनि हैं॥2॥

राम बचन सुनि कछुक जुडाने। कहि कछु लखनु बहुरि मुसुकाने॥
हँसत देखि नख सिख रिस ब्यापी। राम तोर भ्राता बड पापी॥3॥

मूल

राम बचन सुनि कछुक जुडाने। कहि कछु लखनु बहुरि मुसुकाने॥
हँसत देखि नख सिख रिस ब्यापी। राम तोर भ्राता बड पापी॥3॥

भावार्थ

श्री रामचन्द्रजी के वचन सुनकर वे कुछ ठण्डे पडे। इतने में लक्ष्मणजी कुछ कहकर फिर मुस्कुरा दिए। उनको हँसते देखकर परशुरामजी के नख से शिखा तक (सारे शरीर में) क्रोध छा गया। उन्होन्ने कहा- हे राम! तेरा भाई बडा पापी है॥3॥

गौर सरीर स्याम मन माहीं। कालकूट मुख पयमुख नाहीं॥
सहज टेढ अनुहरइ न तोही। नीचु मीचु सम देख न मोही॥4॥

मूल

गौर सरीर स्याम मन माहीं। कालकूट मुख पयमुख नाहीं॥
सहज टेढ अनुहरइ न तोही। नीचु मीचु सम देख न मोही॥4॥

भावार्थ

यह शरीर से गोरा, पर हृदय का बडा काला है। यह विषमुख है, दूधमुँहा नहीं। स्वभाव ही टेढा है, तेरा अनुसरण नहीं करता (तेरे जैसा शीलवान नहीं है)। यह नीच मुझे काल के समान नहीं देखता॥4॥