01 दोहा
विश्वास-प्रस्तुतिः
गाधिसूनु कह हृदयँ हँसि मुनिहि हरिअरइ सूझ।
अयमय खाँड न ऊखमय अजहुँ न बूझ अबूझ॥275॥
मूल
गाधिसूनु कह हृदयँ हँसि मुनिहि हरिअरइ सूझ।
अयमय खाँड न ऊखमय अजहुँ न बूझ अबूझ॥275॥
भावार्थ
विश्वामित्रजी ने हृदय में हँसकर कहा- मुनि को हरा ही हरा सूझ रहा है (अर्थात सर्वत्र विजयी होने के कारण ये श्री राम-लक्ष्मण को भी साधारण क्षत्रिय ही समझ रहे हैं), किन्तु यह लोहमयी (केवल फौलाद की बनी हुई) खाँड (खाँडा-खड्ग) है, ऊख की (रस की) खाँड नहीं है (जो मुँह में लेते ही गल जाए। खेद है,) मुनि अब भी बेसमझ बने हुए हैं, इनके प्रभाव को नहीं समझ रहे हैं॥275॥
02 चौपाई
विश्वास-प्रस्तुतिः
कहेउ लखन मुनि सीलु तुम्हारा। को नहिं जान बिदित संसारा॥
माता पितहि उरिन भए नीकें। गुर रिनु रहा सोचु बड जीकें॥1॥
मूल
कहेउ लखन मुनि सीलु तुम्हारा। को नहिं जान बिदित संसारा॥
माता पितहि उरिन भए नीकें। गुर रिनु रहा सोचु बड जीकें॥1॥
भावार्थ
लक्ष्मणजी ने कहा- हे मुनि! आपके शील को कौन नहीं जानता? वह संसार भर में प्रसिद्ध है। आप माता-पिता से तो अच्छी तरह उऋण हो ही गए, अब गुरु का ऋण रहा, जिसका जी में बडा सोच लगा है॥1॥
सो जनु हमरेहि माथे काढा। दिन चलि गए ब्याज बड बाढा॥
अब आनिअ ब्यवहरिआ बोली। तुरत देउँ मैं थैली खोली॥2॥
मूल
सो जनु हमरेहि माथे काढा। दिन चलि गए ब्याज बड बाढा॥
अब आनिअ ब्यवहरिआ बोली। तुरत देउँ मैं थैली खोली॥2॥
भावार्थ
वह मानो हमारे ही मत्थे काढा था। बहुत दिन बीत गए, इससे ब्याज भी बहुत बढ गया होगा। अब किसी हिसाब करने वाले को बुला लाइए, तो मैं तुरन्त थैली खोलकर दे दूँ॥2॥
सुनि कटु बचन कुठार सुधारा। हाय हाय सब सभा पुकारा॥
भृगुबर परसु देखावहु मोही। बिप्र बिचारि बचउँ नृपदोही॥3॥
मूल
सुनि कटु बचन कुठार सुधारा। हाय हाय सब सभा पुकारा॥
भृगुबर परसु देखावहु मोही। बिप्र बिचारि बचउँ नृपदोही॥3॥
भावार्थ
लक्ष्मणजी के कडुए वचन सुनकर परशुरामजी ने कुठार सम्हाला। सारी सभा हाय-हाय! करके पुकार उठी। (लक्ष्मणजी ने कहा-) हे भृगुश्रेष्ठ! आप मुझे फरसा दिखा रहे हैं? पर हे राजाओं के शत्रु! मैं ब्राह्मण समझकर बचा रहा हूँ (तरह दे रहा हूँ)॥3॥
मिले न कबहुँ सुभट रन गाढे। द्विज देवता घरहि के बाढे॥
अनुचित कहि सब लोग पुकारे। रघुपति सयनहिं लखनु नेवारे॥4॥
मूल
मिले न कबहुँ सुभट रन गाढे। द्विज देवता घरहि के बाढे॥
अनुचित कहि सब लोग पुकारे। रघुपति सयनहिं लखनु नेवारे॥4॥
भावार्थ
आपको कभी रणधीर बलवान् वीर नहीं मिले हैं। हे ब्राह्मण देवता ! आप घर ही में बडे हैं। यह सुनकर ‘अनुचित है, अनुचित है’ कहकर सब लोग पुकार उठे। तब श्री रघुनाथजी ने इशारे से लक्ष्मणजी को रोक दिया॥4॥