01 दोहा
विश्वास-प्रस्तुतिः
अरुन नयन भृकुटी कुटिल चितवत नृपन्ह सकोप।
मनहुँ मत्त गजगन निरखि सिङ्घकिसोरहि चोप॥267॥
मूल
अरुन नयन भृकुटी कुटिल चितवत नृपन्ह सकोप।
मनहुँ मत्त गजगन निरखि सिङ्घकिसोरहि चोप॥267॥
भावार्थ
उनके नेत्र लाल और भौंहें टेढी हो गईं और वे क्रोध से राजाओं की ओर देखने लगे, मानो मतवाले हाथियों का झुण्ड देखकर सिंह के बच्चे को जोश आ गया हो॥267॥
02 चौपाई
विश्वास-प्रस्तुतिः
खरभरु देखि बिकल पुर नारीं। सब मिलि देहिं महीपन्ह गारीं॥
तेहिं अवसर सुनि सिवधनु भङ्गा। आयउ भृगुकुल कमल पतङ्गा॥1॥
मूल
खरभरु देखि बिकल पुर नारीं। सब मिलि देहिं महीपन्ह गारीं॥
तेहिं अवसर सुनि सिवधनु भङ्गा। आयउ भृगुकुल कमल पतङ्गा॥1॥
भावार्थ
खलबली देखकर जनकपुरी की स्त्रियाँ व्याकुल हो गईं और सब मिलकर राजाओं को गालियाँ देने लगीं। उसी मौके पर शिवजी के धनुष का टूटना सुनकर भृगुकुल रूपी कमल के सूर्य परशुरामजी आए॥1॥
देखि महीप सकल सकुचाने। बाज झपट जनु लवा लुकाने॥
गौरि सरीर भूति भल भ्राजा। भाल बिसाल त्रिपुण्ड बिराजा॥2॥
मूल
देखि महीप सकल सकुचाने। बाज झपट जनु लवा लुकाने॥
गौरि सरीर भूति भल भ्राजा। भाल बिसाल त्रिपुण्ड बिराजा॥2॥
भावार्थ
इन्हें देखकर सब राजा सकुचा गए, मानो बाज के झपटने पर बटेर लुक (छिप) गए हों। गोरे शरीर पर विभूति (भस्म) बडी फब रही है और विशाल ललाट पर त्रिपुण्ड्र विशेष शोभा दे रहा है॥2॥
सीस जटा ससिबदनु सुहावा। रिस बस कछुक अरुन होइ आवा॥
भृकुटी कुटिल नयन रिस राते। सहजहुँ चितवत मनहुँ रिसाते॥3॥
मूल
सीस जटा ससिबदनु सुहावा। रिस बस कछुक अरुन होइ आवा॥
भृकुटी कुटिल नयन रिस राते। सहजहुँ चितवत मनहुँ रिसाते॥3॥
भावार्थ
सिर पर जटा है, सुन्दर मुखचन्द्र क्रोध के कारण कुछ लाल हो आया है। भौंहें टेढी और आँखें क्रोध से लाल हैं। सहज ही देखते हैं, तो भी ऐसा जान पडता है मानो क्रोध कर रहे हैं॥3॥
बृषभ कन्ध उर बाहु बिसाला। चारु जनेउ माल मृगछाला॥
कटि मुनिबसन तून दुइ बाँधें। धनु सर कर कुठारु कल काँधें॥4॥
मूल
बृषभ कन्ध उर बाहु बिसाला। चारु जनेउ माल मृगछाला॥
कटि मुनिबसन तून दुइ बाँधें। धनु सर कर कुठारु कल काँधें॥4॥
भावार्थ
बैल के समान (ऊँचे और पुष्ट) कन्धे हैं, छाती और भुजाएँ विशाल हैं। सुन्दर यज्ञोपवीत धारण किए, माला पहने और मृगचर्म लिए हैं। कमर में मुनियों का वस्त्र (वल्कल) और दो तरकस बाँधे हैं। हाथ में धनुष-बाण और सुन्दर कन्धे पर फरसा धारण किए हैं॥4॥