01 दोहा
विश्वास-प्रस्तुतिः
देखहु रामहि नयन भरि तजि इरिषा मदु कोहु॥
लखन रोषु पावकु प्रबल जानि सलभ जनि होहु॥266॥
मूल
देखहु रामहि नयन भरि तजि इरिषा मदु कोहु॥
लखन रोषु पावकु प्रबल जानि सलभ जनि होहु॥266॥
भावार्थ
ईर्षा, घमण्ड और क्रोध छोडकर नेत्र भरकर श्री रामजी (की छबि) को देख लो। लक्ष्मण के क्रोध को प्रबल अग्नि जानकर उसमें पतङ्गे मत बनो॥266॥
02 चौपाई
विश्वास-प्रस्तुतिः
बैनतेय बलि जिमि चह कागू। जिमि ससु चहै नाग अरि भागू॥
जिमि चह कुसल अकारन कोही। सब सम्पदा चहै सिवद्रोही॥1॥
मूल
बैनतेय बलि जिमि चह कागू। जिमि ससु चहै नाग अरि भागू॥
जिमि चह कुसल अकारन कोही। सब सम्पदा चहै सिवद्रोही॥1॥
भावार्थ
जैसे गरुड का भाग कौआ चाहे, सिंह का भाग खरगोश चाहे, बिना कारण ही क्रोध करने वाला अपनी कुशल चाहे, शिवजी से विरोध करने वाला सब प्रकार की सम्पत्ति चाहे,॥1॥
लोभी लोलुप कल कीरति चहई। अकलङ्कता कि कामी लहई॥
हरि पद बिमुख परम गति चाहा। तस तुम्हार लालचु नरनाहा॥2॥
मूल
लोभी लोलुप कल कीरति चहई। अकलङ्कता कि कामी लहई॥
हरि पद बिमुख परम गति चाहा। तस तुम्हार लालचु नरनाहा॥2॥
भावार्थ
लोभी-लालची सुन्दर कीर्ति चाहे, कामी मनुष्य निष्कलङ्कता (चाहे तो) क्या पा सकता है? और जैसे श्री हरि के चरणों से विमुख मनुष्य परमगति (मोक्ष) चाहे, हे राजाओं! सीता के लिए तुम्हारा लालच भी वैसा ही व्यर्थ है॥2॥
कोलाहलु सुनि सीय सकानी। सखीं लवाइ गईं जहँ रानी॥
रामु सुभायँ चले गुरु पाहीं। सिय सनेहु बरनत मन माहीं॥3॥
मूल
कोलाहलु सुनि सीय सकानी। सखीं लवाइ गईं जहँ रानी॥
रामु सुभायँ चले गुरु पाहीं। सिय सनेहु बरनत मन माहीं॥3॥
भावार्थ
कोलाहल सुनकर सीताजी शङ्कित हो गईं। तब सखियाँ उन्हें वहाँ ले गईं, जहाँ रानी (सीताजी की माता) थीं। श्री रामचन्द्रजी मन में सीताजी के प्रेम का बखान करते हुए स्वाभाविक चाल से गुरुजी के पास चले॥3॥
रानिन्ह सहित सोच बस सीया। अब धौं बिधिहि काह करनीया॥
भूप बचन सुनि इत उत तकहीं। लखनु राम डर बोलि न सकहीं॥4॥
मूल
रानिन्ह सहित सोच बस सीया। अब धौं बिधिहि काह करनीया॥
भूप बचन सुनि इत उत तकहीं। लखनु राम डर बोलि न सकहीं॥4॥
भावार्थ
रानियों सहित सीताजी (दुष्ट राजाओं के दुर्वचन सुनकर) सोच के वश हैं कि न जाने विधाता अब क्या करने वाले हैं। राजाओं के वचन सुनकर लक्ष्मणजी इधर-उधर ताकते हैं, किन्तु श्री रामचन्द्रजी के डर से कुछ बोल नहीं सकते॥4॥