265

01 दोहा

गौतम तिय गति सुरति करि नहिं परसति पग पानि।
मन बिहसे रघुबंसमनि प्रीति अलौकिक जानि॥265॥

मूल

गौतम तिय गति सुरति करि नहिं परसति पग पानि।
मन बिहसे रघुबंसमनि प्रीति अलौकिक जानि॥265॥

भावार्थ

गौतमजी की स्त्री अहल्या की गति का स्मरण करके सीताजी श्री रामजी के चरणों को हाथों से स्पर्श नहीं कर रही हैं। सीताजी की अलौकिक प्रीति जानकर रघुकुल मणि श्री रामचन्द्रजी मन में हँसे॥265॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

तब सिय देखि भूप अभिलाषे। कूर कपूत मूढ मन माखे॥
उठि उठि पहिरि सनाह अभागे। जहँ तहँ गाल बजावन लागे॥1॥

मूल

तब सिय देखि भूप अभिलाषे। कूर कपूत मूढ मन माखे॥
उठि उठि पहिरि सनाह अभागे। जहँ तहँ गाल बजावन लागे॥1॥

भावार्थ

उस समय सीताजी को देखकर कुछ राजा लोग ललचा उठे। वे दुष्ट, कुपूत और मूढ राजा मन में बहुत तमतमाए। वे अभागे उठ-उठकर, कवच पहनकर, जहाँ-तहाँ गाल बजाने लगे॥1॥

लेहु छडाइ सीय कह कोऊ। धरि बाँधहु नृप बालक दोऊ॥
तोरें धनुषु चाड नहिं सरई। जीवत हमहि कुअँरि को बरई॥2॥

मूल

लेहु छडाइ सीय कह कोऊ। धरि बाँधहु नृप बालक दोऊ॥
तोरें धनुषु चाड नहिं सरई। जीवत हमहि कुअँरि को बरई॥2॥

भावार्थ

कोई कहते हैं, सीता को छीन लो और दोनों राजकुमारों को पकडकर बाँध लो। धनुष तोडने से ही चाह नहीं सरेगी (पूरी होगी)। हमारे जीते-जी राजकुमारी को कौन ब्याह सकता है?॥2॥

जौं बिदेहु कछु करै सहाई। जीतहु समर सहित दोउ भाई॥
साधु भूप बोले सुनि बानी। राजसमाजहि लाज लजानी॥3॥

मूल

जौं बिदेहु कछु करै सहाई। जीतहु समर सहित दोउ भाई॥
साधु भूप बोले सुनि बानी। राजसमाजहि लाज लजानी॥3॥

भावार्थ

यदि जनक कुछ सहायता करें, तो युद्ध में दोनों भाइयों सहित उसे भी जीत लो। ये वचन सुनकर साधु राजा बोले- इस (निर्लज्ज) राज समाज को देखकर तो लाज भी लजा गई॥3॥

बलु प्रतापु बीरता बडाई। नाक पिनाकहि सङ्ग सिधाई॥
सोइ सूरता कि अब कहुँ पाई। असि बुधि तौ बिधि मुँह मसि लाई॥4॥

मूल

बलु प्रतापु बीरता बडाई। नाक पिनाकहि सङ्ग सिधाई॥
सोइ सूरता कि अब कहुँ पाई। असि बुधि तौ बिधि मुँह मसि लाई॥4॥

भावार्थ

अरे! तुम्हारा बल, प्रताप, वीरता, बडाई और नाक (प्रतिष्ठा) तो धनुष के साथ ही चली गई। वही वीरता थी कि अब कहीं से मिली है? ऐसी दुष्ट बुद्धि है, तभी तो विधाता ने तुम्हारे मुखों पर कालिख लगा दी॥4॥